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१५-कल्याणको ओर बिन्दुकी भांति नगण्य तुल्य है। इसका कारण यह है कि अन्य दर्शन जहां केवल तात्त्विक ज्ञानको मोक्षका हेतु मानते हैं वहां जैनदर्शन तत्त्वज्ञानके साथ-साथ चारित्र पर जोर देता है। इसकी दृष्टिमें तत्त्वज्ञान मोक्षका परम्परा हेतु है जबकि चारित्र साक्षात् हेतु है-'चारित्तं खलु धम्मो।' इसकी तात्त्विक व्यवस्था भी चारित्रको प्रधान मानकर की गयी है। ज्ञातृत्वको दिशामें, कर्तृत्वको दिशामें अथवा भोक्तृत्वको दिशामें हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये, क्यों करना चाहिये और क्यों नहीं करना चाहिये, यही इस दर्शनका प्रधान प्रतिपाद्य है। इस दर्शनके अनुसार व्यक्ति कर्मके द्वारा नीचे गिरता है और कर्मके द्वारा ही ऊपर उठता है, इसलिये कर्म-सिद्धान्तके भीतर जितना गहरा प्रवेश जैन-दर्शनको प्राप्त है वह अन्य किसी दर्शनको नहीं है । ३. स्वतन्त्र भाषा ___ इस छोटेसे प्रबन्धमें उस सर्व सिद्धान्तको समा देना तो मेरी शक्ति के बाहर है, तथापि उसका संक्षिप्त भावार्थ मात्र प्रस्तुत करनेका यह एक अनधिकृत प्रयास मात्र है। जटिल सैद्धान्तिक परिभाषाओंको छोड़कर जन-साधारणकी भाषामें निबद्ध होनेके कारण वहुत सम्भव है कि शास्त्रज्ञोंको कहीं-कहीं इसमें शास्त्रविरोध सरीखा कुछ प्रतोत हो, परन्तु यदि कुछ देरके लिये शास्त्रीय शब्दांका पक्ष छोड़कर वे इन परिभाषाओंके अनुभव-सिद्ध वाचार्थको अपने भीतर पढ़नेका प्रयत्न करें ता मुझे विश्वास है कि इस भ्रान्ति के लिये कहीं स्थान नहीं रह जायेगा। तथापि मैं वाणी मातासे क्षमा मांगता हूं कि मैंने उसकी परिभाषाओंको छोड़कर स्वतन्त्र भाषाका प्रयोग कर लिया है। ४. अध्यात्म तथा कर्मशास्त्रका समन्वय
कर्मसिद्धान्तका सामान्य परिचय देते हुये यहां यह बता देना आवश्यक है कि अध्यात्म-शास्त्र और कर्म-शास्त्रके प्रकृत विषयों में
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