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१४-विकास
७७ इस प्रकार हमारी सारी शक्तियां जो आज विषयोन्मुख होनेके कारण संकीर्ण तथा तमोग्रस्त हैं वही तत्त्वोन्मुख होनेपर व्यापक तथा ज्योतिपुंज बन जाती हैं।
२. व्यवहार ही निश्चय
शास्त्रमें दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, आराधना, समिति, गुप्ति, भक्ति, प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण आदि प्रत्येकके अनेकों लक्षण किये गये हैं। वे वास्तव में उस-उस अंगके उत्तरोत्तर विविध सोपान हैं। जैसे कि देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धा सम्यग्दर्शनका प्रथम सोपान है, जीवन में सात तत्त्वोंकी भूतार्थ प्रतीति करना उसका द्वितीय सोपान है, अन्य तत्त्वोंको छोड़कर केवल आत्माकी रुचि करना उसका तृतीय सोपान है और आत्मस्पर्श अथवा आत्मानुभूति उसका चतुर्थ सोपान है। इसी प्रकार शास्त्र-स्वाध्याय सम्यग्ज्ञान का प्रथम सोपान है, सप्ततत्त्व-विवेक द्वितीय सोपान है, स्व-पर भेद-विज्ञान तृतीय सोपान है और आत्मका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष चतुर्थ सोपान है। चारित्रके क्षेत्रमें भी अशुभे निवृत्ति शुभे प्रवृत्ति प्रथम सोपान है, ज्ञान दर्शनकी एकता द्वितीय सोपान है, समता तथा शमत्ता तृतीय सोपान है और आत्मस्थिरता चतुर्थ सोपान है।
सर्वत्र पूर्व-पूर्ववर्ती सोपान साधन है और उत्तर-उत्तरवर्ती उसका साध्य है। जो द्वितीय सोपान पहलेके प्रति साध्य है वही अपनेसे आगेवाले तृतीयके लिए साधन है। जो तृतीय सोपान द्वितीयका साध्य है वही चतुर्थका साधन है। आद्य होनेके कारण प्रथम सोपान साधन ही है किसीका भी साध्य नहीं है। इसी प्रकार अन्तिम होनेके कारण चतुर्थ सोपान साध्य ही है किसीका भी साधन नहीं है। मध्यवर्ती सभी सोपान साधन भी हैं और साध्य भी, अपनेसे पूर्ववर्ती के लिए साध्य और अपनेसे उत्तर
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