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हृदयगत भावलोकके लौकिक क्षेत्रमें जो स्थान वैषयिक प्रेमको प्राप्त है वही स्थान उसके पारमार्थिक क्षेत्रमें विनयको प्राप्त है । विनय वास्तव में प्रेमका रूपान्तरण है, जिसका स्थान हृदय है बुद्धि नहीं । बौद्धिक विकास हो जानेपर भी हृदयके द्वार खुल ही जाएँ यह आवश्यक नहीं । यही कारण है कि बुद्धिके द्वारा तत्त्वोंको समझ लेने वाले और अपनी उस बौद्धिक समझमें ही तत्त्वज्ञताकी भ्रान्ति करनेवाले व्यक्तिका हृदय मुंदा रहता है । इस योग्यताके प्रगट होनेसे पहले शिष्टाचारके नाते जो थोड़ी बहुत विनय या नम्रता उसके पास थी, उसका भी लोप हो जाता है, और उसका स्थान ज्ञानाभिमान ले लेता है ।
१०. विनय
१. सम्यक्त्वके अंग
अभिमानी व्यक्ति स्वयं अपनेको बड़ा समझता है परन्तु परमार्थतः वह छोटा हो जाता है । विनयशील व्यक्तिको अपने दोष तथा दूसरोंके गुण दीखते हैं, जिसके कारण उसे अपने दोषोंके प्रति ग्लानि और दूसरे गुणोंके प्रति स्पर्धा होती है । फलस्वरूप उसमें दोषोंकी हानि और गुणोंकी वृद्धि होती है । तत्त्वदृष्टि सम्पन्न व्यक्तिमें यह स्वाभाविक है, इसीलिये उपगहन तथा उपबृंहण
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