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१- अध्यात्म खण्ड
प्रति मस्तक झुकाना तथा उनकी पादसेवा करना मात्र है, तदपि तात्विक दृष्टिसे देखनेपर यह जिसप्रकार सम्यक्त्वके अंगोंमें अनुगत है उसी प्रकार सोलह कारण भावनाओंमें, दश धर्मोमें, छह आभ्यन्तर तपोंमें तथा अन्य भी सभी पारमार्थिक भावों में इसकी अनुगति देखी जा सकती है। यही कारण है कि आचार्योंने इसे एक महान तपके रूपमें ग्रहण किया है ।
जिस प्रकार तपके प्रकरणमें इसका ग्रहण दूसरे नम्बरपर होता है, उसी प्रकार सोलह कारण भावनाओं में विनयके नामसे और दस धर्मो में मार्दवके नामसे इसका ग्रहण दूसरे नम्बरपर होता है । एक बात यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है, जिसपर से कि इस गुणकी महत्ता स्पष्ट प्रतीतिमें आ जाती है । तत्त्वदृष्टि खुल जानेपर यद्यपि व्यक्ति सम्यग्दृष्टि कहलानेका अधिकारी हो जाता है, परन्तु इतने मात्रसे वह विशुद्ध - दृष्टिवाला नहीं कहलाता । परिणाम- विशुद्धिका सम्बन्ध न तो ज्ञानके साथ है और न श्रद्धा अथवा प्रतीतिके साथ है । उसका सम्बन्ध हृदयके साथ हैं, हृदय-शुद्धि ही परिणाम - विशुद्धि है । सम्यग्दर्शनकी पंच लब्धियोंमें इसका स्थान भी द्वितीय नम्बरपर आता है । तत्त्वदृष्टि खुलनेके साथ-साथ यदि हृदयके कपाट भी खुल जायें, तो वह तत्त्व दृष्टि दर्शन-विशुद्धि अर्थात् विशुद्ध तत्त्वदृष्टि कहलाती है । हृदयकी यह विशुद्धि ही वास्तवमें तत्त्वका स्पर्श कहलाता है जो कि सम्यग्दर्शनका अन्तिम लक्षण माना गया है ।
" श्रद्धेति, प्रत्येति, रोचति, स्पर्शति यः स वै शुद्धदृष्टिः " ।
शास्त्राध्ययनसे अथवा गुरुके उपदेशसे तत्त्वोंकी श्रद्धा होती है । यही श्रद्धा धीरे-धीरे जीवनमें प्रविष्ट होकर उन तत्त्वोंकी साक्षात् प्रतीति करने लगती है, जिसे समयसारमें 'भूतार्थेनाभिगता नव तत्त्वाः' ऐसा कहा गया है । यही प्रतीति आगे चलनेपर अनात्म
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