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१२-आगे बढ़ो शंका है न भय । विघ्न सबके मार्गमें आते हैं, उनसे घबराना नहीं चाहिए । वीर डरते नहीं करते हैं, सोचते नहीं चलते हैं, इसीमें निश्शंकितत्व तथा निःकांक्षित्व की सार्थकता है।
यह मार्ग है, जिसपर सब चले जा रहे हैं। सब पथिक हैं कोई आगे है और कोई पोछे । जो आज आगे है वह कल पीछे हो जाता है, और जो आज पीछे है वह कल आगे हो जाता है। जो खरगोशकी भांति अभिमान करके आगे बढ़ता है वह पीछे रह जाता है, और जो कछुकी भांति धैर्य तथा विश्वासपूर्वक धोरे-धीरे चलता है वह आगे बढ़ जाता है। आगेवालेसे ईर्ष्या मत करो और पीछे वालेका उपहास मत करो, बल्कि एक दूसरेको सहयोग देकर तथा एक दूसरेसे सहयोग लेकर आगे बढ़ो। ईर्ष्या तथा तिरस्कार करनेकी बजाए एक दूसरेको प्रेरणा दो और एक दूसरेसे प्रेरणा लो। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यही स्थितिकरण अंग है।
अभिमान मत करो। अपनेको बड़ा समझकर दूसरेको छोटा मत देखो। सब समान हैं, कोई बड़ा छोटा नहीं। किसीको दोषी न समझो। दोष दिखाई दे तो उसे दोष न समझकर रोग समझो। यहां सब रोगी हैं, किसीको रोग अधिक है और किसीको कम । दोष कहनेसे विचिकित्सा ग्लानि अथवा तिरस्कार की भावना जाग्रत होती है और रोग कहनेसे करुणा, सहानुभूति प्रेम तथा वैयावृत्ति की भावना उदित होती है। यही निर्विचिकित्सा, उपग्रहन तथा वात्सल्य गुण हैं।
इस प्रकार हम भी आगे बढ़ें और दूसरोंको भी आगे बढ़ायें। महन्त बननेकी बजाय सेवक बनें, पिता बननेकी बजाए माता बनें । दूसरोंकी उन्नतिमें ही हमारी उन्नति है और दूसरोंके पतनमें हमारा पतन । इसलिये किसीको गिरानेका अथवा अपनेसे नीचा
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