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१३- सत्पुरुषार्थ
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परन्तु समृताकी परमार्थं भूमिवाले अप्रमत्त साधकके लिए विषकुम्भ बनकर रह जाते हैं ।
"पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा नियती य । जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होई विसकुंभो ॥"
२. त्यागका त्याग
आचार्योंके अत्यन्त गम्भीर रहस्यका स्पर्श न कर पानेके कारण श्रोता यहाँ असमंजसमें पड़ जाता है । एक ओर तो परमपूज्य आचार्योंके शब्द जिनपर अंगुली उठानेका हम साहस नहीं कर सकते और दूसरी ओर व्यवहारका साक्षात् विरोध । सकल आचार शास्त्रकी आज्ञा और तदनुसार सकल धर्मात्माओंकी प्रवृत्ति ऐन्द्रिय विषयोंका त्याग कराने तथा करनेके प्रति होती है, जब कि इस विवेचनमें इस त्यागका भी त्याग करनेके लिए कहा गया है । निषेध के निषेधका अर्थ जिसप्रकार विधि होता है उसी प्रकार त्यागके त्यागका अर्थ विषयका ग्रहण होता है । निर्भय होकर ऐन्द्रिय विषयोंमें प्रवृत्ति करना और उसे अमृतकुम्भ बताना स्पष्ट स्वच्छन्दाचार है, इसमें किसीको कुछ भी कहनेको अवकाश नहीं ।
परन्तु शान्त हो प्रभो शान्त हो, यद्यपि बाह्य दृष्टिसे देखनेपर तेरा क्षोभ अत्यन्त युक्त है, तदपि आचार्योंका ऐसा अभिप्राय कदापि नहीं है । वे किसी दूसरे लोककी बात कर रहे हैं, चित्त-शोधनकी अथवा चित्त-मुक्तिको बात कर रहे हैं। विषय के ग्रहण त्यागकी यहाँ - बात ही नहीं है । वे ग्रहण- त्यागके विकल्पसे अतीत उस समता भूमिकी बात कर रहे हैं, जहाँ न किसी विधिको अवकाश है और न निषेधको । इष्ट-अनिष्ट ग्रहण- त्याग, विधि-निषेध, धर्म-अधर्मं ये सब वास्तव में मानसिक विकल्प हैं, परमार्थ भूमिपर जिनकी कोई सत्ता नहीं ।
अहंकारकी उपज होनेके कारण यहाँ केवल विकल्पके त्याग
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