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११ - धर्म
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जो ग्राह्य है वही त्याज्य है, अथवा इनमेंसे कुछ भी नहीं है । केवल एक महासागर है जिसकी ये सब छोटी बड़ी तरंगे हैं, अन्य कुछ नहीं । इसलिये सब दृश्य हैं, सब सुन्दर हैं । मोहके अभाव में उत्पन्न यह समता - दृष्टि ही हमारा स्वभाव होनेके कारण धर्म है ।
इसी प्रकार समग्रको युगपत् 'न देखकर क्रमसे एक-एक पदार्थको देखना क्षोभ है । क्योंकि ऐसा करनेसे ज्ञान एक विषयको छोड़कर दूसरेपर और दूसरे विषयको छोड़कर तीसरेपर सदा भागता रहता है । एक क्षणको भी निश्चल तथा शान्त नहीं होता । प्वायंट लगाये बिना समग्रको युगपत् देखनेसे इस भाग-दौड़को अवकाश नहीं है । यही शमता शान्ति या विश्रान्ति है । जीवनका सहज वर्तन होनेके कारण यह चारित्र है ।
३. परमार्थ
विषम देखने वाले मोहके अभाव में समता होती है और भागते रहने वाले क्षोभके अभाव में शमता । इन दोनों का संगम ही अमृत है, निर्विकल्प सुख हैं, रसानुभूति है। यही वह अन्तिम परमार्थं भूमि है जिसे शास्त्रों में साम्य, स्वास्थ्य समाधि, योग, चित्त-निरोध, शुद्धोपयोग, आत्मानुभूति, माध्यस्थ्य, उपेक्षा, वैराग्य, विरागता, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, प्रशम, शान्ति आदि नामों से अभिहित किया गया है ।
"साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्वेतोनिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥ माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहा । वैतृष्ण्यं प्रशमः शान्तिरित्येकार्थोऽभिधीयते ॥ " ४. दश धर्म
क्षमा मार्दव आर्जव आदि जितने कुछ भी धर्म बताये गये हैं वे वास्तव में इस समताकी ही विविध स्फुरणायें हैं । उन सबमें
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