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११-धर्म वाले सभी साधक वास्तव में अटके हुए हैं। परन्तु यह सर्वथा निरर्थक हो ऐसा भी नहीं है। विवेक युक्त किये जानेपर इसके द्वारा वासनाओंका शमन तथा वमन अवश्य होता है। इस प्रकार यह न तो अत्यन्त निरर्थक है और न ही अत्यन्त सार्थक है। ज्योंज्यों वासनायें ढीली पड़ती हैं त्यों-त्यों इसे भी ढीला पड़ना चाहिये, अन्यथा यह भी स्वयं वासनाका रूप धारण कर लेता है। इस रहस्यसे अनभिज्ञ साधक प्रायः ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते हैं त्यों-त्यों इसे अधिक कठोर करते जाते हैं। यही उनका अटकना है।
परन्तु निश्चय तथा व्यवहार की यह सन्धि इतनी सूक्ष्म है कि तनिक सा इधर होनेपर व्यक्ति जिसप्रकार विषय-त्याग-रूप हठवादके कुएंमें गिर पड़ता है, उसीप्रकार तनिकसा उधर होनेपर प्रमाद तथा स्वच्छन्दाचारकी खाईमें सर तुड़ाता है। दोनोंके मध्यमें रहना ही विवेककी मांग है, जिसे केवल वही समझ सकता है जिसने हृदयकी भूमिमें प्रवेश किया है।
धर्मका अर्थ स्वभाव है, न कि क्रिया अथवा त्याग। 'वत्थुसहावो धम्मो'। चेतनका स्वभाव समता तथा शमता है, इसलिये वही इसका धर्म है। और धर्म होने के कारण वही इसका चारित्र है अर्थात् सहज आचरण है। समताका अर्थ है सबको समान दृष्टिसे देखना और शमता का अर्थ है विकल्प-विश्रान्ति। वास्तवमें दोनों एक दूसरेके पूरक हैं । समताके अभावमें विश्रान्ति सम्भव नहीं, और विश्रान्तिके अभाव में समता केवल भ्रान्ति है। समताका सम्बन्ध सम्यग्दर्शनके साथ है और विकल्प-विश्रान्तिका सम्बन्ध सम्यक्-चारित्रके साथ है । इसीलिये मोह तथा क्षोभसे विहीन आत्म-परिणामको समताका स्वरूप बताया गया है। मोह अर्थात् मिथ्या-दृष्टि और क्षोभ अर्थात् वैकल्पिक भागदौड़ अथवा मिथ्या-चारित्र, इन दोनोंका अभाव होनेपर आत्माका जो विशुद्ध परिणाम प्रकट होता है वह
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