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१- अध्यात्म खण्ड
इन चारोंमें प्रयुक्त भक्ति शब्द जिनके ही किसी प्रभूत रूपके प्रति इंगित करता है ।
इस प्रकार सर्वांगीण विनयके द्वारा धर्मकी तथा गुणोंकी अभिवृद्धि हो जाना हो मार्गप्रभावना है, क्योंकि गुणोंसे ही जगत प्रभावित होता है केवल कहनेसे अथवा क्रियाकाण्ड से नहीं ।
३. गुरु विनय
आत्मकल्याणके पारमार्थिक क्षेत्र में गुरु-विनयका स्थान सर्वोपरि है । 'शास्त्राध्ययनके द्वारा स्वयं समझ लूँगा' अथवा 'स्थान-स्थानपर उपदेश हो रहें हैं, शिविर लग रहे हैं, कहीं भी जाकर सुन लूँगा अथवा सीख लूंगा, मुझे गुरुकी क्या आवश्यकता है, जिनके पास अपनी योग्यता नहीं वे ही गुरुकी खोज करें" इत्यादि प्रकारके भाव अहंकार तथा अभिमान स्वरूप होनेसे परमार्थ - घातक हैं । ऐसे व्यक्तिको शास्त्रका बौद्धिक ज्ञान प्राप्त हो सकता है परन्तु तत्त्वदृष्टि नहीं। वह केवल तत्त्वोंकी बात कर सकता है परन्तु तात्त्विक दृष्टिसे अपनेको तथा समस्त विश्वको देख सके ऐसी योग्यता उसमें प्रगट नहीं हो सकती । 'आत्मा भिन्न शरीर भिन्न' इतना कहना मात्र तत्त्वदृष्टि नहीं है । 'बाह्य जगतमें तथा आभ्यन्तर जगतमें सर्वत्र एक तथा अखण्ड तात्त्विक व्यवस्था है । सब उसी व्यवस्थाके आधीन चले जा रहे हैं । न यहां कोई कुछ कर रहा है, न कोई कुछ भोग रहा है । एक अखिल प्रवाह है, चला जा रहा है और चलता रहेगा, इस प्रकारसे तत्त्वालोक में प्रवेश पाना गुरु कृपा के बिना सम्भव नहीं ।
गुरुकी परीक्षा होनी भी सम्भव नहीं । क्योंकि गुरु-परीक्षाकी बात करनेवाला अभिमानी है । विनयशील परीक्षा करना नहीं जानता शरणापन्न होना जानता है, अपने व्यक्तित्व को समर्पण करना जानता है । अभिमानी को अपनेसे बड़ा अथवा गुणवान जब कोई दिखाई ही नहीं देता तो आप ही बताइए कि वह किसकी
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