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१०- विनय
सम्यग्दर्शनका अंग माना गया है। इसके विपरीत ज्ञानाभिमानीको अपने गुण तथा दूसरोंके दोष दीखते हैं, जिसके कारण उसमें गुणोंकी हानि और दोषोंकी वृद्धि होती जाती है । इसलिये जिसमें विनय नहीं है, जिसका मस्तक किसी के भी सामने नहीं झुकता है, समझ लीजिए कि वह अभिमानी है तत्त्वज्ञ नहीं । तत्त्वज्ञमें आठ मद होने सम्भव नहीं ।
इसी प्रकार निर्विचिकित्सा, वात्सल्य और स्थितिकरण ये जो तीन गुण तत्त्वज्ञके बताये गये हैं उनके विषयमें भी समझना, जो अभिमानीमें सम्भव नहीं । अपनेको बड़ा और दूसरेको छोटा न देखकर सबको तत्त्वदृष्टि से समान देखना निर्विचिकित्सा है। गुणीजनोंके प्रति प्रेम उमड़ना तथा उनकी सेवा करनेकोन्जी करना वात्सल्य है । इस भावमें दोषी जनोंके दोष, दोष न दिखकर रोग दिखते हैं । जिस प्रकार रोगीके प्रति ग्लानि नहीं की जाती बल्कि सहानुभूति की जाती है, उसे घुत्कारा नहीं जाता बल्कि प्रेमपूर्वक पुचकारा जाता है, इसी प्रकार तत्त्वज्ञ व्यक्ति दोषी व्यक्तिके प्रति प्रेम तथा सहानुभूति करता है । यही उसका वात्सल्य है । वह उसकी सेवा करता है और उसकी दोष-निवृत्तिके लिये अनेकों उपाय करता है । यही उसका स्थितिकरण गुण है । अभिमानी में ये सम्भव नहीं ।
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सम्यग्दर्शन के ये चार अंग विनयके रूपान्तरण हैं । शेष चार अंग 'परस्परोपग्रहो जोवानाम्' की समतापूर्ण भावनासे उद्गत होते हैं, जिनका कथन आगे किया जानेवाला है । इस प्रकार ये आठों अंग वास्तवमें हृदयगत प्रेम तथा समताकी शाखायें हैं ।
२. सर्वानुगति
अभिमानका अभाव होनेपर जो नम्रता प्रगट होतो है वही विनय का स्वरूप है । यद्यपि इसका व्यावहारिक अर्थ गुरुजनोंके
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