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९- भावना
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चिन्तवन करते हुये शरीर तथा कर्मोंके प्रति वैराग्य उदित हो जाता है । जिस प्रकार हार्दिक अभिलाषा के अभाव में भाई गयी भावना केवल शाब्दिक पाठ है, उसी प्रकार संवेग तथा वैराग्यकी स्फूर्तिके अभाव में अनित्य, अशरण आदिका चिन्तवन केवल शाब्दिक पाठ है । इसलिये भावना भानेकी दृष्टिसे देखनेपर जिस प्रकार हम भावनाको अनुप्रेक्षा कह सकते हैं इसी प्रकार संवेग तथा वैराग्य भावकी स्फूर्तिकी दृष्टि से देखनेपर अनुप्रेक्षाको हम भावना कह सकते हैं ।
कृत्रिम रूपसे भावना भाना अथवा उसका पाठ पढ़ना केवल भावना तथा अनुप्रेक्षाका अभिनय है । यद्यपि ईमानदारीसे आत्मकल्याणके लिये प्रार्थनापूर्वक भाई गयी. वे आगे जाकर वास्तविक बन सकती हैं परन्तु वर्तमानमें वे वास्तविक नहीं है । इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हें भाना नहीं चाहिये । यहाँ केवल सैद्धान्तिक सत्य असत्यका निर्णय किया जा रहा है, कर्त्तव्य अकर्त्तव्यका नहीं । जैसा कि आगे बताया जानेवाला है. साधना के क्षेत्रमें प्रत्येक प्रवृत्ति पहले पहले कृत्रिम होती है, पीछे धीरे धीरे वह स्वभाव में प्रवेश करती जाती है । स्वभाव बन जानेपर वह सहज हो जाती है, तब उसे प्रवृत्ति न कहकर धर्म कहा जाता है, स्वभाव कहा जाता है, और वही चारित्र शब्दका परमार्थ वाच्य होता है । अतः भावना अवश्य भाओ परन्तु अन्य प्रवृत्तियों की भाँति इसे अपना स्वभाव बनानेका प्रयत्न करो, केवल शाब्दिक पाठमें अटककर सन्तुष्ट न हो जाओ ।
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