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६ - अहंकार दर्शन
इसे देख | इसका तमाशा देख, इसकी उछल-कूद देख, स्वयं न उछल । यही होगा तेरा सफल पुरुषार्थं । क्योंकि ऐसा करनेसे समग्रको पकड़ने, अपनाने तथा भोगनेकी जो तेरी कामना है, वह एक क्षणमें पूरी हो जाएगी । तू अणुसे महान् बन जाएगा, बिन्दुसे सागर बन जाएगा, अहंकारसे 'अहं' बन जाएगा ।
अखिल विश्व जब तेरे ज्ञानमें एक ही समय चकचका उठेगा, तब तुझे अपने वैभवका पता चलेगा, और एक-एक पदार्थको पकड़कर वैभवशाली बनने की जो तेरी अतृप्त कामना है वह विलीन हो जाएगी । और बता तुझे चाहिये ही क्या । समग्रता प्राप्त करनेके लिए ही तो छटपटा रहा था न ? वह प्राप्त हो गयी, तू अपूर्णसे पूर्ण हो गया। यही तो तेरा अथवा तेरे ज्ञानका लोकालोक-व्यापी विभुत्व है । वह तुझे प्राप्त हुआ, तू महान बना । तेरे 'अहं' का विस्तार हुआ ।
अपनी संकीर्णता के कारण तूने इस समग्रमें परस्पर विभक्त जो अनेकों केन्द्र स्थापित कर दिये थे वे सब परस्परमें घुलकर एक हो गए। जिसप्रकार अपने-अपने कार्यमें रत अनेकानेक छोटे बड़े पुर्जोंसे समवेत यह कारखाना एक अखण्ड इकाई है, अथवा जिसप्रकार अनेकानेक झिलमिलाती तरंगोंसे समवेत यह महासागर एक अखण्ड इकाई है, उसी प्रकार परस्परमें मिल-मिलकर बिछुड़ने वाले और बिछुड़ - बिछुड़कर मिलनेवाले अनेकानेक जड़-चेतन पदार्थोंसे समवेत यह समग्र विश्व तेरे लिए अब एक अखण्ड इकाई है, जिसने सबको अपने भीतर समा लिया है । इस समग्र के अतिरिक्त और रह ही क्या गया जिसकी कि तुझे कामना हो सकती है । केवल एक है और वह तुझे प्राप्त हैं, इसलिए तेरा ज्ञान तो 'केवल' है और उस ज्ञानका स्वामी तू 'केवली' है। यही तो है तेरा तथा तेरे ज्ञानका स्वभाव या परमार्थ रूप ।
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