________________
• ३८
१-अध्यात्म खण्ड स्वामित्व कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व विषयक सकल कामनाओंको तजकर तूने इस अखिल लोकालोकको जाना, इसलिए अब तू सर्वगत है, सर्वज्ञ है।
"अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणण जेण ।
लोयालोउ वि मूणहु, सव्वगु वुच्चइ तेण ॥" अब तू अहंकार नहीं 'अहं' है, पूर्ण 'अहं' है, और तेरा 'इदं' भी अब 'इदं नहीं है, विश्व है, पूर्ण 'इदं' है।
जिस किया से चित्त निर्मल हो वह अकर्म और। मिस क्रिया से चित्त कलुषित हो वह कर्म है ।
बन्धन है। * आत्मदर्शन होने पर कता मकता में, श्रोता ।
अश्रोता में वक्ता अबक्त्ता में बदल जाता है। कर्म हो और कर्म का लेप न हो यही मानवीय । चलना का विकास है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org