________________
१-अध्यात्म खण्ड
एक क्षुद्रके साथ अर्थात् किसी एक जड़ या चेतन पदार्थके साथ बंधा होनेके कारण अहंकार सारा दिन जानने करने तथा भोगनेका काम करते रहते भी तृप्त नहीं हो पाता । तेलीके बैलकी भांति वह अपने केन्द्र में स्थापित उस क्षुद्रकी परिक्रमा मात्र करता है, परन्तु एक बाल बराबर भी आगे नहीं बढ़ता अथवा उस केन्द्रका तनिक मात्र भी विस्तार नहीं करता है। यही है उसकी अतृप्त कामना भोर असफल पुरुषार्थ । ज्ञानीजन जब उसे जगानेके लिए उसके इस असफल पुरुषार्थपर हल्कीसी चोट लगाते हैं तो वह गरज उठता है । इसमें उसका कुछ भी दोष नहीं है। एक तो थका मांदा पहले ही पड़ा था और आशा कर रहा था कि कोई मेरे धैर्यको शाबाश देगा, उल्टा उसके जख्मों पर नमक छिड़क दिया। बेचारा गरजे नहीं तो क्या करे। अंधेको अंधा कहनेसे उसे क्रोध आता है, इसी प्रकार असफलको असफल कहनेसे उसे क्रोध आता है। यह क्रोध इसकी अतृप्ति तथा निराशाका द्योतक है।
४. विन्दुसे सागर ____आ प्रभु आ। मैं तुझे सान्त्वना दूंगा, तुझे अंधा न कहकर सूरदास कहूँगा, तुझे असफल न कह कर पुरुषार्थी कहूँगा। तू थोड़ी देरके लिए 'मैं करूं' 'मैं भीगूं' ऐसी कामनाको छोड़कर 'मैं जानूं' ऐसी कामना कर। परन्तु 'पदार्थको जानें ऐसी कामनाको छोड़कर केवल 'मैं जानूँ' इतनी मात्र कर। इन्द्रियोंकी शरण छोड़कर तत्त्वकी शरणमें जा।
इस समग्रमें से अपनी रुचिके अनुसार छाँट छाँटकर जो तूने किन्हीं विषयोंपर मेरेपनेकी और किन्ही विषयोंपर तेरेपनेकी मोहरें लगा दी हैं उन्हें धो डाल। बस जैसा-कैसा भी यह महासागर है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org