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१-अध्यात्म खण्ड प्रकार इन करणोंका आश्रय छोड़ देनेपर ही ज्ञानका पूर्ण रूप दृष्टिके समक्ष आता है, उससे पहले नहीं। ज्ञान अथवा अहंका संकीर्ण रूप ही 'अहंकार' है। ३. अतृप्त कामना ___ ज्ञानका पूर्ण रूप वह है जो कि लोकालोकको अपने भीतर धारण किये बैठा है अथवा इस समग्र विश्वको आत्मसात् किये बैठा है, अपने स्वरूपके साथ एकरस किये बैठा है। समग्र होनेके कारण वही परमार्थ है, वही सर्वज्ञता है। अहंम्-इदंके रूपमें द्विधा विभक्त न होनेके कारण वह अखण्ड है, एक है। इसलिए वह 'केवल' कहलाता है। यही 'अहं' आत्मा या Self का परमार्थ स्वरूप है जिसे इन करणोंने संकीर्ण कर दिया है अथवा इन करणोंका आश्रय लेनेसे जो संकीर्ण हो गया है। वस्तुतः पूर्ण होनेके कारण अपनी इस संकीर्ण अवस्थामें वह सन्तुष्ट कैसे रह सकता है। सूर्यका प्रकाश तो जड़ है इसलिए उसकी सन्तुष्टि असन्तुष्टिका प्रश्न नहीं, परन्तु यह तो चेतन है । वेंटीलेटरमें से आनेवाला संकीर्ण सूर्य-प्रकाश भले अपनेको पूर्ण करनेके लिए कुछ प्रयत्न न करे, परन्तु चेतन होनेके कारण ज्ञान अथवा अहं तो करेगा ही। ____ मैं अपने पूर्ण रूपको जानू', 'मैं अपने पूर्ण वैभवको भोगूं', 'मैं अपनेको पूर्ण करूं' इत्याकारक इच्छा ही उस 'अहं'की परमार्थ कामना है, और इस कामनाकी प्रेरणासे अपनेको पूर्ण जाननेके प्रति, अपनेको पूर्ण करनेके प्रति और अपनेको पूर्ण भोगनेके प्रति किया गया उसका प्रयत्न ही परमार्थ पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थसे युक्त 'अहं' अहंकार शब्दका वाच्य है। संक्षेपमें हम कह सकते हैं कि अपनी पूर्णताकी प्राप्तिके लिये संघर्षरत अहं अहंकार' है और पूर्ण अहं 'मात्मा' या ज्ञान है।
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