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१-अध्यात्म खण्ड गर्मी क्रान्ति तथा स्फुर्ति उत्पन्न करने वाली श्वासवावु इसका स्वरूप है। इन्द्रियोंके पीछे स्थित चेतना शक्तिको स्पर्श किये बिना ही जो योग साधनामें लग जाते हैं ऐसे योगी इस भूमिमें अटके हैं । वे सब हठयोगकी साधना द्वारा प्राणरोध करके अपनेको कृतकृत्य मान लेते हैं। योगके द्वारा प्राप्त कुछ विचित्र शक्तियें या ऋद्धियें उनके अहंकारको पुष्ट कर देती हैं, और वे आगे बढ़नेसे विरत हो जाते हैं।
समवशरणकी 'लताभूमि' के स्थानपर यहां तृतीय भूमि है मनोभूमि । इन्द्रियोंके मार्गसे प्राप्त विषयोंका मनन करते रहना इसका स्वरूप है । ऐन्द्रिय विषयोंके साथ-साथ जो साधक प्राणायामका भी त्याग करके प्रथम तथा द्वितीय भूमिका अतिक्रम करनेकी कल्पना करते हैं वे इस भूमिमें अटक जाते हैं। गुरुके मुखसे सुनकर अथवा शास्त्रोंमें पढ़कर मनन चिन्तन करते रहने में ही अथवा चर्चा करते रहने में ही सन्तुष्ट हो जाते हैं और अपनी साधनाको पूरी मानकर उक्त ज्योतिका स्पर्श करनेके प्रति विरत हो जाते हैं।
अर्हन्त भगवान्के समवशरणकी चतुर्थ भूमि है 'उपवनभूमि' । इसके स्थानपर यहां बुद्धि भूमि है। मननपूर्वक निर्णय कर लेना इसका स्वरूप है। तर्क-वितर्क द्वारा मनन करनेका त्याग करके जो तृतीय भूमिका अतिक्रम करनेकी कल्पना करते हैं वे यहां आकर अटक जाते हैं। शास्त्रीय विषयोंका निर्णय करके अपनेको सर्वज्ञ मान बैठते हैं । अन्धोंमें काना राजाकी भांति जगतके अन्ध प्राणियोंके मध्य महन्तताईको प्राप्त होकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। ज्ञानाभिमानसे उनका अहंकार इतना बलिष्ठ हो जाता है कि उन्हें अपनेसे अतिरिक्त जगतमें कुछ दिखाई ही नहीं देता। सबका तिरस्कार तथा उपहास करना ही उनका धर्म बन जाता है, जिसका स्वयं उसको भान नहीं हो पाता।
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