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९-भावना
१. प्रधानता
हृदयका लोक भाव-लोक कहलाता है । दर्द, टीस, सहानुभूति, प्रेम, रसास्वादन, संवेदन, आसक्ति, विरक्ति, राग, वैराग्य, संवेग, मैत्री, प्रमोद, विनय, भक्ति, करुणा, दया, माध्यस्थ्य, उपेक्षा आदि जितनी कुछ भी बातें ऊपर बताई गयी हैं वे सब भाव कहलाते हैं। 'भाव सहित वन्दे जो कोई' इस उक्तिमें प्रयुक्त 'भाव' शब्द अथवा 'भावना भव नाशिनी' इस उक्तिमें प्रयुक्त 'भाव' शब्द वास्तवमें हृदयको ओर संकेत करते हैं, ज्ञान अथवा चित्तकी ओर नहीं। इसीको शास्त्रोंमें परिणाम-विशुद्धि अथवा हृदयशुद्धि कहा गया है। पंच लब्धियोंमें इसका उल्लेख विशुद्धि-लब्धिके नामसे किया गया है और सोलह कारण भावनाओंमें दर्शन-विशुद्धिके नामसे। जीवन-कल्याणके मार्गमें इस तत्त्वकी सर्वोपरि प्रधानता है। भाव अथवा हृदयसे शून्य समस्त त्याग, तप, शास्त्राध्ययन तथा प्रवचन लेखन आदि सब शुष्क तथा निष्प्राण हैं। शास्त्रोंमें इन सबको बाल-तप, अज्ञान आदि कहकर व्यर्थ बताया गया है।
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