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७- भ्रान्ति दर्शन
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करनेको अथवा प्राणायामके त्याग मात्रको इस भूमिका अतिक्रम मानना भ्रान्ति है ।
चित्तका काम भूत भविष्यत्की चिन्ता करना है । समयका ग्रहण हो जानेपर भूत भविष्यत् नामकी कोई वस्तु शेष नहीं रह जातो । उनको चिन्तासे मुक्त होकर केवल वर्तमान में शान्त रहना चित्त भूमिका अतिक्रम है । इसे ही शास्त्रमें शमता कहा है। इसके स्थानपर देव गुरु शास्त्रका अथवा शास्त्रीय विषयोंका ध्यान करके चित्त भूमिका अतिक्रम हुआ मान लेना भ्रान्ति है ।
किस प्रकार हमारी मानसिक वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियोंसे संस्कारोंका निर्माण होता है, किस प्रकार उनकी प्रेरणासे पुनः हम कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, और किस प्रकार उन्हें तोड़ा अथवा बदला जा सकता है, करने धरनेका संकल्प तथा कर्मसे प्राप्त होनेवाले फलकी कामना ही बन्धका हेतु है, काम नहीं । कर्मसिद्धान्तका यह सारा रहस्य आगे विस्तार के साथ बताया जानेवाला है । उस सकल विधानका अपने जीवनमें साक्षात्कार करके कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वके सकल संकल्पोंसे और सकल कामनाओंसे उपरत हो जाना वासना नामक सप्तम भूमिका अतिक्रम है | कर्तृत्व भोक्तृत्व के संकल्पको तथा कामनाको न छोड़कर उनके विषयोंका त्याग करना और अपनेको वासनासे उपरत हुआ मान लेना भ्रान्ति है | कामना विरतिके स्थानपर कर्म-विरतिको वैराग्य मान लेना भ्रान्ति है ।
देहाध्यासके कारण तात्त्विक 'अहं' की संकीर्ण प्रतीति अहंकार है । इसीके कारण जगतके पदार्थोंमें मैं-मेरा, तू-तेरा आदि रूप अथवा इष्ट-अनिष्ट, ग्राह्य त्याज्य, कर्तव्य - अकर्तव्य, मित्र-शत्रु आदि रूप विविध द्वन्द्व सदा चित्तको घेरे रहते हैं । अपनेको तथा अन्य सबको तात्त्विक दृष्टिसे देखकर इन द्वन्द्वोंसे उपरत हो जाना
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