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___८-हृदय चाहती है। 'मैं इसे प्यार कर रही हूँ' ऐसी अहं इदं रूप द्वैतकी प्रतीति उस समय उसे नहीं होती। मैं तथा बच्चा ऐसा द्वैत ही नहीं। 'मैं' ही बच्चा है और बच्चा ही 'मैं' है। बाहर वालोंको दो दीख रहे हैं, परन्तु माताके भीतर दो नहीं हैं । इसीका नाम है आत्मसात्-करण अथवा तन्मयता या तादात्म्य ।
किसी पदार्थको भोगते समय जैसे 'मैं इसका स्वाद चख रहा हूँ' ऐसा कोई विकल्प नहीं रहता, केवल रसास्वादन मात्र रहता है, अथवा जिस प्रकार अपने शिशुको वक्षसे लगानेपर माताको 'मैं इसे प्यार कर रही हूँ' ऐसा कोई विकल्प नहीं होता, केवल तन्मयता होती है, उसी प्रकार टीस दर्द सहानुभूति करुणा आदि समस्त संवेदनाओंमें जानना । इसपर से यह सिद्धान्त निर्धारित करना कि हृदयगत भावोंमें द्वैतकी प्रतीति नहीं होती। जहां द्वैत है वहां ज्ञान है, वही चित्त है, और जहां अद्वैत है, तन्मयता है, वहां हृदय है। केवल रसास्वादन ही इसका स्वरूप है, भले ही वह रस कैसा भी क्यों न हो। ४. तत्त्वोन्मुखता ____निःसन्देह विषयोन्मुख होनेके कारण लौकिक क्षेत्रमें हृदयका स्वरूप अत्यन्त विकृत तथा तमोग्रस्त है, परन्तु तत्त्वोन्मुख हो जानेपर वही अत्यन्त सात्विक तथा ज्योतिपुंज है। विषयोन्मुख होनेपर जो रसास्वादन निम्नगामी है वही तत्त्वोन्मुख होनेपर ऊर्ध्वगामी हो जाता है। विषयोन्मुख होनेपर जिसे हम रसास्वादन कहते हैं, तत्त्वोन्मुख होनेपर उसे ही हम स्वसंवेदन कहते हैं। विषयोन्मुख होनेपर जिसे हम आसक्ति कहते हैं तत्वोन्मुख होनेपर उसे ही हम समता कहते हैं। विषयोंसे विरत हो जानेके कारण इसे हम विरति, विरक्ति अथवा वैराग्य कहते हैं और संसार से भीत हो जानेके कारण इसे हम संवेग कहते हैं।
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