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६-अहंकार दर्शन
साधा अर्थ 'अहं' अर्थात् Self होता है। जैसे कि 'आत्मकथा' अर्थात् मेरी अपनी कथा, 'अहं'का परमार्थिक स्वरूप क्योंकि ज्ञानाकार है और ज्ञानका परमार्थिक स्वरूप क्योंकि ज्ञेयाकार है इसलिए अहं, ज्ञान तथा ज्ञेय इन तीनोंमें परमार्थिक भूमिपर कोई अन्तर नहीं है; तीनों एक हैं, तीनों पूर्ण हैं, तीनों अखण्ड हैं। समझने तथा समझानेके लिए भले ही ये भिन्न करके कहे जायें, परन्तु वस्तुतः भिन्न नहीं हैं। ज्ञेय भी वास्तव में ज्ञानका ही कोई रूप है, उससे पृथक् कुछ नहीं। यदि ऐसा न होता तो इदं उसमेंसे स्फुरित न हो पाता। भल न जाना कि मैं आभ्यन्तर ज्ञेयकी बात कर रहा हूँ, बाह्यकी नहीं। २. संकीर्णता
ज्ञानकी शक्ति अनन्त है, इसलिये उसमें निष्ठ यह ज्ञेय भी अनन्त है, लोकालोक प्रमाण है। बहिर्करण अथवा अन्तष्करणकी सहायतासे होनेवाले जिस ज्ञानको हमने ज्ञान माना हुआ है, वह वास्तवमें ज्ञानका पूर्णरूप नहीं है। जिस प्रकार वेन्टीलेटरके मार्गसे कमरेमें प्रवेश करनेवाला सूर्य-प्रकाश सूर्यप्रकाशके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, इसी प्रकार बाह्य तथा अन्तरंग करणोंके मार्गसे भीतर प्रवेश करनेवाला ज्ञान ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तदपि जिस प्रकार सूर्यका वह प्रकाश पूर्ण प्रकाश न होकर उसका एक अत्यन्त संकीर्ण रूप है, उसीप्रकार करणाधीन यह ज्ञान भी पूर्ण ज्ञान न होकर उसका एक अत्यन्त संकीर्ण रूप है। जिस प्रकार सूर्य प्रकाशकी संकीर्णता वेंटीलेटरके कारणसे उत्पन्न होनेके कारण उसका परमार्थ रूप नहीं है, इसी प्रकार ज्ञानकी यह संकीर्णता भी करणोंके कारणसे उत्पन्न होनेके कारण उसका परमार्थ रूप नहीं है। जिसप्रकार वेंटीलेटरको तोड़ देनेपर ही सूर्यका पूर्ण प्रकाश दृष्टिके समक्ष आता है उससे पहले नहीं, इसी
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