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५-समग्र दर्शन
३१ प्रकार दोनों दृष्टियोंको समन्वित कर लेनेपर यह ध्रुव अथवा नित्य होते हुए भी परिवर्तनशील अथवा अनित्य है, एक होते हुए भी अनेक है, तत् होते हुए भी अतत् है, अभिन्न तथा अखण्ड होते हुए भी अनेकों पदार्थोंके रूप में विभक्त है। इसका यह पूरा रूप ही है 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । ___ इस विस्तृत कथन में मैंने केवल यह चित्रित करनेका प्रयत्न किया है कि इदं को जाननेवाला अहं, तथा अहंका विषय बननेवाला इदं, ये दोनों ही दो-दो प्रकारसे देखे जा सकते हैं। अपने संकल्पका अथवा विकल्पका प्वायेंट लगाकर और घायंट न लगाकर वायंट लगाकर देखनेसे दोनों संकीर्ण हो जाते हैं और इसलिए विभक्त भी। प्वायंट न लगाकर देखनेपर दोनों पूर्ण एक तथा अखण्ड रहते हैं। इसलिए प्वायंट लगाकर जानना अविद्या है जिसके कारण यह वह, यहाँ वहाँ, अब तब, ऐसा वैसा इत्यादि रूप द्रव्यात्मक, क्षेत्रात्मक, कालात्मक तथा भावात्मक विविध द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं। इन द्वन्द्वोंके कारण ही सागरको तरंगोंवत् चित्तमें अनन्तानन्त विकल्प-वीचिये उत्पन्न होती हैं जिनके कारण वह सदा क्षुब्ध तथा श्रान्त बना रहता है। जैसाकि आगे बताया जायेगा इस क्षोभका अभाव हो जानेपर जो विश्रान्ति तथा शमता उत्पन्न होती है वह ही धर्म है, वह ही अमृत है। उसकी प्राप्तिके लिए अहं तथा इदं दोनोंको समग्र, पूर्ण तथा अखण्ड देखना ही वह तात्त्विक अथवा समीचीन दृष्टि है जिसे विद्या अथवा सम्यक्त्व कहा जाता है और कल्याणके मार्गमें जिसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है।
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