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३-चित्त दर्शन लेनेकी सामान्य शक्तिका नाम 'ज्ञान' है और उसके समक्ष विद्यमान या उपस्थित उस पदार्थको ज्ञेय कहा जाता है जो कि उस समय ज्ञानका विषय बना हुआ है। यह ज्ञेय दो प्रकारका होता है-एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर। आँखके समक्ष विद्यमान भगवत्प्रतिमा तथा पढ़े जाने योग्य शास्त्रोल्लिखित शब्द, अथवा श्रोत्रके समक्ष विद्यमान गुरु आदिके मुखोद्भूत शब्द बाह्य ज्ञेय हैं। आँख बन्द कर लेनेपर भी अन्तर्मनमें जो उसी भगवत्प्रतिमा तथा शास्त्रोल्लिखित शब्दका प्रत्यक्ष होता है अथवा कान बन्द कर लेने पर भी अन्तर्मनमें गुरु आदिके मुखोद्भूत शब्द ज्योंके त्यों सुने जाते प्रतीत होते हैं, वे सब आभ्यंतर ज्ञेय हैं।
इन दोनों प्रकारके ज्ञेयोंको जाननेके लिए हमें जिस साधन या यन्त्रका आश्रय लेना पड़ता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। उसे ही सैद्धान्तिक भाषामें करण अर्थात् साधन कहते हैं। ज्ञेयकी भांति करण भी दो प्रकार का होता है, बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य ज्ञेयको जाननेके साधन नेत्र श्रोत्रादि जिस प्रकार बाह्य करण हैं, उसी प्रकार आभ्यन्तर ज्ञेयको जाननेका साधन 'अन्तष्करण' है। यह अन्तष्करण ही यहाँ चित्त शब्दके द्वारा अभिहित किया गया है, जिसका विशद तथा विश्लिष्ट रूप आगे दर्शाया जायेगा। ३. अक्षय कोष
दूसरा प्रश्न यह है कि चित्तमें ये विकल्प कहाँसे आते हैं और कहाँ चले जाते हैं। उपर्युक्त कथनपरसे यह स्पष्ट है कि 'चित्त' नामसे प्रसिद्ध इस अन्तष्करणमें ये विकल्प न तो कहीं बाहरसे आते हैं और न उसमें से निकलकर कहीं बाहर जाते हैं। उसीमेंसे आते हैं और उसीमें लीन होकर अथवा डूबकर समाप्त हो जाते हैं ।
तृतीय प्रश्न यह है कि इन विकल्पोंका उपादान तथा निमित्त कारण क्या है। इसका उत्तर भी उपर्युक्त द्वितीय उत्तरमें अन्तर्भूत
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