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५-समग्र दर्शन
आता है और न बाहर कुछ जाता है। मत भूलिये कि में आपको आभ्यन्यर जगत्की सैर करा रहा हूं और वहाँ खड़ा होकर ही यह सब कुछ बोल रहा हूं। अतः मेरे इन शब्दोंपर से छलं ग्रहण करके यह न कहना कि मैं बाह्य जगतके इन्द्रिय-ग्राह्य पदार्थोको एक तथा अखण्ड कह रहा हूं। मेरा प्रयोजन केवल ज्ञानके स्वरूपका तथा उसकी विचित्र शक्तिका दर्शन कराना इष्ट है। जिस 'अविद्या के कारण वह अपनी पूर्णता को भूलकर क्षुद्र बना हुआ है उस अविद्याको विजय करना तथा कराना ही मेरा प्रयोजन है। . जिसप्रकार अविद्यावश हम ज्ञानको पूर्ण अथवा समग्र ग्रहण न करके उसमें अहम् इदम् का द्वैत उत्पन्न कर लेते हैं और इस प्रकार उसे क्षुद्र बना देते हैं, इसी प्रकार अविद्यावश हम उस ज्ञानके ज्ञेयको अर्थात् लोकालोक प्रमाण इस विश्वको भी पूर्ण अथवा समग्र ग्रहण न करके उसमें यह वह, यहां वहां, अब तब, ऐसा वैसा आदि का द्वैत उत्पन्न कर लेते हैं और इस प्रकार उसे क्षुद्र बना देते हैं। जिसप्रकार संग्रह दृष्टिसे देखने पर हाथ पांव आदि विभिन्न अंगोंसे समवेत यह शरीर एक तथा अखण्ड है, परन्तु भेद दृष्टिसे देखनेपर वह हाथ पांव आदि विविध अंगोंके रूप में विभक्तसा हुआ प्रतीत होता है। उसी प्रकार संग्रह दृष्टि से देखनेपर अनन्तानन्त जड़ चेतन पदार्थोंसे समवेत यह विश्व एक अखण्ड महासत्ता है, परन्तु भेद दृष्टि से देखनेपर यही इन पदार्थों के रूपमें विभक्तसा हुआ प्रतीत होता है। तहां इसे विभक्तवत् देखना अविद्या है और एक अखण्ड महासत्ताके रूप में देखना विद्या है जो आगे जाकर केवल-ज्ञानका रूप धारण कर लेती है। २. पूर्णता
'अहं' तथा 'इदं' इन दोनोंको पूर्ण देखनेवाला व्यक्ति सर्वज्ञ तथा केवली कहलाता है। सबको युगपत् देखनेके कारण वह
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