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५--समग्र दर्शन
१. पूर्णतामें अपूर्णता
ज्ञान परमार्थतः अखण्ड है और इसीप्रकार उसका विषय भी अखण्ड है। ज्ञान व्यापक है और उसी प्रकार उसका ज्ञेय भी व्यापक है।
आदा णाणपमाणं, णाणं णेयपमाणमुद्दिट्ठ।
णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं दु सव्वगयं ॥ आत्मा या चेतना ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय समस्त लोकालोक अथवा विश्वप्रमाण है। समग्र विश्वको युगपत् विषय करनेके लिए समर्थ है इसलिए ज्ञान सर्वगत है। उसके साथ तादात्म्यको प्राप्त होनेसे आत्मा या चेतना भी सर्वगत या विभु है । भले ही द्रव्य-प्रदेशोंकी अपेक्षा उसे विभु अथवा सर्वव्यापक न कहें परन्तु भावात्मक ज्ञान-शक्तिकी अपेक्षा तो वह विभु या सर्वव्यापक है ही।
इत्याकारक तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर 'अहम्' भी पूर्ण है और 'इदम्' भी पूर्ण है । यह पूर्ण इदं इस पूर्ण अहं में स्थित है। इसमें से ही उदित होता है और इसीमें डूब जाता है। न बाहरसे कुछ
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