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५- समग्र दर्शन
प्रमाण करना, अन्यथा व्यर्थका बाल - प्रलाप समझकर छोड़ देना और क्रोध करने की बजाये एक बालक समझकर मुझे क्षमा कर देना ।
चर्म चक्षुओंसे देखनेपर जहां मनुष्य, पशु, स्त्री पुरुष, इष्ट, अनिष्ट आदि पृथक्-पृथक् पदार्थ दिखाई देते हैं, वहां ही तात्त्विक दृष्टिसे देखने पर एक अखण्ड इकाई दिखाई देती है, एक अखण्ड तथा पूर्ण महासत्ता दिखाई देती है, एक महासागर दिखाई देता है, एक विशाल नगर दिखाई देता है, एक महावन दिखाई देता है, एक बड़ा कारखाना दिखाई देता है । समग्रको देखनेवाली इस दृष्टिको ही मैं समग्र कहता हूं ।
जिस प्रकार अनन्त जल-राशिसे समवेत सागरमें अनन्तों तरंगें हैं, सब उसीमें से निकलती हैं, उसीके वक्षपर खेलती हैं और उसीमें डूबकर विलीन हो जाती हैं; कोई छोटी है और कोई बड़ी; परस्परमें टकराती हैं, टूटती हैं, फूटती हैं, गरजती हैं, नष्ट हो जाती हैं । इसी प्रकार अनन्तों पदार्थोंसे समवेत इस विश्वमें अनेकों जड़ चेतन पदार्थ हैं जिनके पारस्परिक संयोगसे अनेकानेक आकृतियें बनती हैं और विनष्ट हो जाती हैं । इसीमेंसे निकल रही हैं, इसीके वक्षपर खेल रही हैं और इसीमें डूबकर विलीन हुई जा रही हैं । कोई चेतन प्रतीत होती है और कोई जड़, कोई मनुष्याकार कोई पश्वाकार, कोई महत्वशाली और कोई तुच्छ । सब परस्परमें लड़भिड़ रही हैं, बन बिगड़ रही हैं, गरज रही हैं और नष्ट हो रही हैं ।
. जिसप्रकार तरंगों के देखनेपर वे परस्पर में एक दूसरेसे विभक्त हैं, इसी प्रकार आकृतियोंको देखनेपर वे परस्पर में एक दूसरे से विभक्त हैं । परन्तु जिस प्रकार सागरको पूर्ण तथा एक अखण्ड इकाईके रूप में देखनेपर सब तरंगें एक सागर हैं और उनका मिलना बिछुड़ना उसका सौन्दर्य है, उसी प्रकार विश्वको पूर्ण तथा
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