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१- अध्यात्म खण्ड
उपादान तथा निमित्त क्या है, जिस विषयको लेकर यह वर्तता है वह विषय कहाँ रहता है, इत्यादि । इन सव प्रश्नोंका समाधान प्रस्तुत करनेके लिए चित्तको और अधिक निकटसे देखनेकी आवश्यकता है । लीजिए, मैं आपको इसका सकल रहस्य समझाता हूँ, परन्तु तनिक ध्यान देकर सुनिये। मेरे द्वारा प्रयुक्त शब्दों का संकेत जिस ओर हो रहा है उस ओर देखिये, शब्दोंकी ओर नहीं । शब्दका आश्रय लिये बिना समझने समझानेका व्यवहार सम्भव नहीं है, परन्तु शब्दों में कुछ नहीं है । वे जिस पदार्थकी ओर संकेत करते हैं उसे ही समझना तथा समझाना इष्ट है, शब्दको नहीं । अत: 'यह शब्द किस शास्त्रमें लिखा है, इसकी व्युत्पत्ति व्याकरणकी अपेक्षा किस प्रकार हुई है', इत्यादि विकल्प न कीजिये । मेरी भाषा शास्त्रीय नहीं है, जनसाधारण जैसी है । यहाँ शास्त्र प्रमाणकी भी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि जो बात बताई जाने वाली है वह आ-बाल-गोपाल सबके नित्य अनुभवमें आ रही है । इसलिये जो कुछ भी कहूँ उसे अपने निज अनुभवसे ही प्रमाण कीजिये, किसी दूसरेसे मत पूछिये । जो कुछ पूछना है मुझसे ही पूछिये क्योंकि हो सकता है कि मेरे अभिप्रायको दूसरा व्यक्ति उतना विशद करके न बता सके जितना कि मैं स्वयं बता सकता हूँ । कदाचित् उसमें भ्रान्तिवश अर्थका अनर्थ हो जाना भी सम्भव है । मेरे इस सकल कथनका रहस्य स्वयं आपके भीतर स्थित है । अतः थोड़ी देर के लिये इन्द्रियोंका आश्रय छोड़कर केवल अपने भीतर देखें । वहाँ आपको सब कुछ प्रत्यक्ष हो जायेगा ।
२. चित्तका वाच्यार्थ
'चित्त' शब्दका अर्थं इस शरीर के भीतर स्थित कोई अंग - विशेष नहीं है । विकल्प-युक्त ज्ञानका नाम ही चित्त है । अपने समक्ष विद्यमान या उपस्थित किसी भी पदार्थको जान
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