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३-चित्त दर्शन
१. शब्द नहीं भाव
क्यों चुप क्यों हो गये ? लज्जितसे क्यों प्रतीत होते हैं ? हक्के-बक्केसे क्यों दिखाई देते हैं ? क्या इसलिए कि अपने भीतर स्थित सत्यको आज तक आप न जान सके, अपनी वस्तुको स्वयं न पहचान सके, अपने ही जीवनको स्वयं न देख सके, दूसरोंको समझाते फिरे परन्तु स्वयं न समझ सके ? हाँ हाँ ठीक है, दशा तो वास्तवमें ऐसी ही है । परन्तु लज्जित मत हों क्योंकि आपकी ही नहीं सबकी यही दशा है । चकित भी मत हों क्योंकि यह कोई जादूका खेल नहीं, सत्य है । नहीं जान सके, नहीं समझ सके इत्यादि भाव जाग्रत करके मनमें दीनता मत लायें, क्योंकि जो आज जानते तथा समझते हैं वे भी कल आप जैसे ही थे। भैया ! यह सब भी वास्तवमें तेरे विकल्प हैं, उनके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । इसलिए उस जगतके अन्तर्गत ही हैं, उससे बाहर कुछ नहीं ।
यहाँ अनेकों प्रश्न हो सकते हैं-चित्त क्या वस्तु है, उसमें विकल्प कहांसे आते हैं और कहाँ चले जाते हैं, इन विकल्पोंका
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