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१-अध्यात्म खण्ड
है। चित्तमेंसे उद्भूत होनेके कारण इसका उपादान कारण तो चित्त है ही, निमित्त कारण भी वास्तवमें वह ही है। क्योंकि आभ्यन्तर ज्ञानमें वस्तुतः उसके अतिरिक्त कुछ अन्य है ही नहीं जिसे कि उसका निमित्त कहा जा सके ।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पदार्थकी अनुपस्थितिमें भी ज्ञान में ये ज्ञेय कहाँ से आते हैं ? इसका उत्तर तो अगले अधिकारोंमें विस्तारके साथ दिया जानेवाला है, यहाँ केवल इतना अवधारण कर लीजिए कि ज्ञानमें यह सामर्थ्य है कि आवश्यकता पड़नेपर वह स्वयं अपनेको अहंता तथा इदंताके रूपमें द्विधा विभक्त कर लेता है। एक होते हुए भी वह स्वयं दो बन जाता है-विषय भी स्वयं बन जाता है और विषयी भी, ज्ञाता भी और ज्ञेय भी, ध्याता भी और ध्येय भी, विचारक भी और विचार्य भी, चिन्तक भी और चिन्त्य भी, मन्ता भी और मन्तव्य भी।
ज्ञानगत इस द्वैतमें हम अहंता या विषयीको चित्त कह सकते हैं और इदंता रूप उसके विषयको उसका चैत्य । आभ्यन्तर जगतमें ये दोनों ही वास्तवमें ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं। इसलिए यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता कि 'चित्त' विकल्पोंके लिए अपने विषयको कहाँसे प्राप्त करता है, जहाँ वह स्थित है वहाँ ही उसका विषय भी स्थित है। विषय और विषयी ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। एकके बिना दूसरा सम्भव नहीं। इसलिए हम कह सकते हैं कि चित्त ज्ञानका ही एक विशेष रूप है जो अपने विषयको ज्ञानके कोषमें से निकालता है और उसे पुनः वहाँ ही स्थापित कर देता है।
१. चित्त शब्द कहनेपर मन बुद्धि तथा अहंकारका भी अनुक्त ग्रहण हो ' जाता है, जिनका परिचय आगे यथा स्थान दिया जाएगा ।
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