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१. ज्ञानका विभक्तिकरण
चित्त महामायावी है । जो नहीं है उसे बनाकर जगतको दिखा देना माया है । चित्त भी क्योंकि अपने भीतर अनहुआ जगत बसाता है इसलिए मायावी है । हम पहले बता आये हैं कि ज्ञान अपनेको अहंता तथा इदंताके रूपमें अथवा ज्ञाता और ज्ञेयके रूपमें द्विधा विभक्त कर लेनेके लिए समर्थ है। आइए उसकी सामर्थ्यका कुछ विशेषताके साथ अध्ययन करें ।
'अहमिदं जानामि' अर्थात् मैं इसको जानता हूँ' इत्याकारक प्रतीति 'ज्ञान' का सामान्य लक्षण है । ज्ञानके इस सामान्य लक्षणमें 'अहं घटं जानामि' ( मैं घट को जानता हूँ), इत्यादि रूपसे जिसप्रकार समस्त बाह्ययार्थीका ग्रहण समाविष्ट है, उसी प्रकार 'अहं शास्त्रार्थंजानामि' (मैं शास्त्रके वाच्यार्थको जानता हूँ) इत्यादि रूपसे अखिल शब्दोंके वाच्य वाचक सम्बन्धका ग्रहण भी गर्भित है । इसके अतिरिक्त 'अहमात्मानं जानामि ( मैं आत्माको जानता हूँ) इत्यादि रूप से सकल आध्यात्मिक विषयोंका ग्रहण भी बिना कहे जान लेना चाहिए ।
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४- महामाया
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