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पू. गुणरत्नसूरिजी के साथ, भेरुतारकधाम (राज.) वि.सं. २०५७
१९-९-२०००, मंगलवार
अश्विन कृ. ६
तीर्थंकरमें अचिन्त्य शक्ति होती हैं । हमारी कल्पनामें भी न आये ऐसे उपकार उस शक्ति से होते रहते हैं । दीर्घदृष्टि से विचारें तो महाविदेह क्षेत्रमें रहे हुए तीर्थंकर भी उपकार करते ही हैं । घर का व्यक्ति विदेश जाता हैं तो भी घरका ही कहा जाता हैं । तीर्थंकर किसी भी स्थल पर हों, हमारे ही हैं । महाविदेह क्षेत्र में रहे हुए भगवान महाविदेह के लोगों के ही नहीं, हमारे भी हैं। अगर ऐसा न होता तो रोज उनके चैत्यवंदन का विधान न होता ।
भगवानने हमको यहां रखे हैं वह हमें परिपक्व बनाने के लिए ! अलग क्षेत्र में रहते हैं, उससे हम कोई अलग नहीं हैं। मां अपने पुत्रको कमाने के लिए परदेशमें भेजती हैं, उससे हृदयकी जुदाई थोड़े ही हो जाती हैं ?
भूतकालका वर्तमानमें आरोपण करके जैसे भगवानके कल्याणकों की आराधना की जाती हैं वैसे भावी का भी वर्तमानमें आरोपण कर सकते हैं । इसी दृष्टि से भरतने अष्टापदके उपर २४ तीर्थंकरोकी मूर्तियां भराइ थी । (१२ 8 600
कहे कलापूर्णसूरि - ४