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सम्यक्त्व से लेकर बारहवें गुणस्थानक तक जो गुणश्रेणि प्राप्त होती हैं, वह परमबिंदु ध्यान हैं । उसके बाद तो केवलज्ञान हो जाता हैं । यह ध्यान छद्मस्थों के लिए हैं ।
गुणश्रेणि अर्थात् ? बहुत लंबे काल में जिन कर्म-दलिकों का वेदन करना हो उनका अल्पकालमें वेदन करना उसे गुणश्रेणि कहते हैं । अर्थात् उपरकी स्थिति के कर्म-दलिकों को नीचे के स्थानमें डालना वह गुणश्रेणि ।
देव गुरु धर्म के उपर की श्रद्धा वह तो व्यवहार समकित हैं । निश्चय से तो ध्यान दशामें वह प्रकट होता हैं । व्यवहार से समकित गुरु- महाराज द्वारा लोन के रूपमें देने में आया हैं । वह ऐसे भरोसे से कि भविष्यमें वह अपना समकित प्राप्त कर लेगा । लेकिन हम तो 'लोन' को भी खा जाने वाले पैदा हुए ।
* भगवान की वास्तविक सेवा गुण से होती हैं । प्राथमिक गुण हैं : अभय, अद्वेष और अखेद । ये आने के बाद ही वास्तविक प्रभु - सेवा हो सकती हैं ।
प्रभु को, गुरु को दूर रखकर गुणों को प्राप्त नहीं कर सकते । मात्र ज्ञानसे अभिमान आवेश बढेगा । बढते हुए अभिमान और आवेश दोषों की वृद्धि के सूचक हैं । * प्रभु मिलते ही स्थिरता मिलती हैं । प्रभु जाते ही अस्थिरता आती हैं । प्रभु ! आपका मात्र मेरे चित्तमें प्रवेश ही नहीं, प्रतिष्ठा भी होनी चाहिए ।
पू. धुरंधरविजयजी : भगवान रहते तो एतराज क्या था ? पूज्य श्री : भगवान को एतराज नहीं था । हमें एतराज था । हमें उल्टे-सीधे काम करने थे इसलिए भगवान को जाने दिये । भगवान को रखेंगे तो मोक्ष मिलेगा । भगवान को छोड़ेंगे तो निगोद मिलेगी । क्योंकि बीचमें कहीं भी ज्यादा समय रह नहीं सकते ।
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अध्यात्मसारमें प्रथम गुणश्रेणिमें सात प्रकार की अवान्तर गुण श्रेणियों (अध्यात्मिक क्रियारूप) का निम्नलिखित उल्लेख क्रमशः किया हुआ हैं ।
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कहे कलापूर्णसूरि - ४