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आता हैं । भवाभिनंदी तो मगशेल पत्थर हैं । पुष्करावर्त जैसी देशना भी उसे भीगा नहीं सकती ।
बहुमान के बिना आप भगवान की देशना सुनो तो भी व्यर्थ हैं । जिस कृति का भी आपको रहस्य समझना हो तो उसके कर्ता के प्रति बहुमान होना ही चाहिए पू. देवचंद्रजी इत्यादि के उपर बहुमान न हो तो उनकी कृतियों का हार्द समझमें नहीं ही आयेगा ।
बहुमान मुक्ति का द्वार हैं । गुणानुराग कुलकमें वहाँ तक लिखा हैं : गुण - बहुमानीको तीर्थंकर तक की पदवियां भी दुर्लभ नहीं हैं ।
अहंकार नाश हुए बिना गुणानुराग प्रकट नहीं होता । भगवान की सबसे बड़ी कृपा हमारे अहंकार को नष्ट करते हैं, वह हैं । इन्द्रभूति का अहंकार हटने के बाद ही वे भगवान की भगवत्ता देख सके ।
अहंकार हटने के बाद ही धर्म-श्रवण की योग्यता प्रकट होती हैं ।
अहंकार का आवरण ज्यों ज्यों दूर होता जाता हैं त्यों त्यों आपको सामनेवाले व्यक्ति के गुण दिखते जाते हैं । ज्यों ज्यों गुण दिखते हैं त्यों त्यों उसके प्रति बहुमान प्रकट होता जाता हैं, वे वे गुण आपके अंदर प्रकट होते जाते हैं ।
दोष तुरंत आ जाते हैं, गुण जल्दी नहीं आते, उसका एक ही कारण हैं : हृदयमें दोषों की तरफ पक्षपात हैं, बहुमान हैं, गुणों की तरफ नहीं हैं ।
व्याकरण, काव्य, कोश इत्यादि क्यों पढने हैं ? व्याकरण, व्याकरण के लिये नहीं पढना हैं, काव्य काव्य के लिए नहीं पढना हैं, किंतु आगममें प्रवेश करने के लिए यह सब पढना हैं । आगमका ज्ञान भी आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए पढना हैं प्रकरण ग्रंथ तो आगमरूपी समुद्रमें जाने के लिए नाव समान हैं । मात्र प्रकरण ग्रंथ पढकर रुक नहीं जाना हैं, आगम- - समुद्र का अवगाहन करना हैं ।
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संपूर्ण आगम पढ न सकें शायद, आगमानुसारी जीवन जी न सके शायद, पर उसकी इच्छा पैदा हो जाय तो भी काम हो जाये । इच्छायोग भी मामूली वस्तु नहीं हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ४
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