Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 393
________________ हो इस बातमें कोई दम नहीं । सदा आज्ञापूर्ण विचार, श्रद्धा और प्रेमभरा हृदय, उछलता उत्साह, प्रसन्न मुखमुद्रा, प्रशांत वाणी - यह सभी भक्ति की कल्प-वेलीमें से मिले हुए फल हैं । इन फलोंका आस्वाद जिसने लिया हो वह स्वयं तो भक्ति और प्रसन्नता का फव्वारा बनता ही हैं, परंतु संसर्गमें आनेवाले अन्यको भी प्रसन्नता से नहला देता हैं । दूसरा उन्हें रस (Interest) था जिनागम पढने का ! जिसे प्रभु अच्छे लगे उन्हें प्रभुकी वाणी भी अच्छी लगती ही हैं । जिनागम प्रभु की वाणी का संग्रह हैं । भक्ति से हृदय विकसित होता हैं अध्ययन से दिमाग विकसित होता हैं । विकसित हृदय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमसे जीवन को रस तराबोर बना देता हैं और विकसित दिमाग तर्कशक्ति और विचारशक्ति से जीवनको अपूर्व तेज देता हैं । प्रभु-भक्ति और श्रुत-भक्ति द्वारा पूज्यश्रीमें दोनों गुणों का विकास हो रहा था । ज्ञान-पिपासा पूज्यश्रीमें इतनी तीव्र बनी कि जहाँ कहीं भी ज्ञान प्राप्त करने जैसा लगता वहाँ पहुंच जाते थे । पूज्यश्रीने अब तक अनेकों के पास ज्ञानोपार्जन किया हैं । उसकी कुछ झलक नीचे हैं : वि.सं. २०१२ चातुर्मासमें पू. पंन्यासजीश्री मुक्तिविजयजी के पास लाकडीया (कच्छ)में त्रिषष्टि आदि का अध्ययन । वि.सं. २०१४ चातुर्मासमें पू.आ.वि. प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के साथ चातुर्मास रहकर उनके शिष्यों के पास अध्ययन । वि.सं. २०१५ चातुर्मासमें वढवाणमें पंडितजी अमूलखभाई के पास अध्ययनार्थ । वि.सं. २०१७-२०१८ जामनगर चातुर्मासमें व्रजलाल पंडितजी के पास न्याय दर्शनादिका अध्ययन । वि.सं. २०२५ पू.पं.श्री मुक्तिविजयजी (आ.श्री वि. मुक्तिचंद्रसूरिजी म.) के पास अहमदाबादमें अध्ययन । वि.सं. २०३१-२०३२ चातुर्मासमें क्रमशः बेड़ा-लुणावा (राज.) तथा वि.सं. २०३४ चातुर्मास पिंडवाड़ा (राज.)में साधना, ध्यान आदि (कहे कलापूर्णसूरि - ४00mwwwwwwwwwwwwww ३६३)

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