Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 392
________________ वह दिन-प्रतिदिन प्रगति करता ही रहता हैं । गुण का अर्जन और दोष का विसर्जन करता ही रहता हैं । एक दिन भी विकास रहित नहीं होता । जो आगे बढ़ने की भावना नहीं रखता वह पीछे पड़े बिना नहीं रहता । इसलिए ही श्रावक को साधु बनने की और साधुओं को सिद्ध बनने की भावना रखने की बात कही हैं । मुनिश्री कलापूर्णविजयजी म. का पहले से ही साधना का लक्ष था और उस साधनाने साधुता के स्वीकार के बाद अत्यंत वेग पकड़ा । साधक आत्मा को साधना के अनुकूल वातावरण सामग्री इत्यादि मिल ही जाती हैं। फक्त साधक की सच्ची पात्रता और जिज्ञासा चाहिए । प्रभु-भक्त और श्रुत-भक्त मुनिश्री : साधुजीवन के योग्य कुछ प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने के साथ मुनिश्री कलापूर्णविजयजीने संस्कृत बुक, कर्मग्रंथ आदि के अभ्यास का प्रारंभ किया । जीवनमें सहजरूप से बुने हुए देव-गुरु-भक्ति, विनय, वैयावच्च और क्षमादि गुण भी शुक्ल पक्ष के चंद्र की तरह विकसित होने लगे । पूज्य मुनिश्री को दो चीजोंमें खास रस था । एक बचपनसे ही खुद को अच्छी लगती भगवान की भक्ति का रस और दूसरा पढाई का रस । जब भगवान की मूर्ति देखते तब पागल जैसे बन जाते । मूर्तिमें साक्षात् भगवान देखते और बालक की तरह बातें करने लग जाते । स्तवन बोलते तो इतने भावविभोर बन जाते कि भान ही भूल जाते । भक्तिमें घण्टे के घण्टे बीत जाते । भूख, प्यास, थकान सब कुछ भूल जाते । चाहे जितनी विहारकी थकान लगी हो । वैशाख महिनेमें चाहे जितनी प्यास लगी हो, गोचरी का समय हो गया हो, फिर भी भगवान की मूर्ति मिली तो हो गया । मानो सब कुछ मिल गया । ऐसी अपूर्व मस्तीसे होती भक्तिसे उनकी सुस्ती उड जाती और प्रभु से उन्हें नया ही बल मिलता रहता । साधना का बल वे इस तरह प्रभु से प्राप्त कर लेते । जिन्होंने भगवान की अनंतता के साथ अनुसंधान किया हो वे कहीं निराश होता हो या निष्फल जाता Jw कहे कलापूर्णसूरि - ४ ३६२ WWWW

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