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मुनिश्री मुनिचंद्रविजयजी तथा मुनिश्री पूर्णचंद्रविजयजी के रूपमें घोषित हुए । वि.सं. २०२८में लाकडीयामें पू.आ.श्री.वि. देवेन्द्रसूरीश्वरजी म.का अंतिम चातुर्मास हुआ । पू.आ.श्री.वि. कनकसूरीश्वरजी म.सा. के कालधर्म के बाद पूज्यश्री पू.आ.श्री.वि. देवेन्द्रसूरीश्वरजी के साथ ही रहते थे । वि.सं. २०२० से वि.सं. २०२८ तक के तमाम चातुर्मास साथमें ही किये । इस प्रकार उनके साथ रहते समुदाय-संचालन की अच्छी तालीम मिलती रही ।
पूज्यश्री के गुरुदेव मुनिश्री कंचनविजयजी म.सा. :
पूज्य गुरुदेवश्री कंचनविजयजी महाराज तपस्वी, निःस्पृही और अंतर्मुखी जीवन के स्वामी थे । संस्कृत-प्राकृत भाषा के अभ्यास के साथ पूज्य गुरुदेव के सांनिध्यमें रहकर आगमादि सूत्रों का सुंदर अध्ययन किया था और ज्योतिष विद्या का भी गहरा अभ्यास था ।
कीर्ति, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त करने जैसी पामर मनोवृत्तियों से वे सदा पर रहते । किसी के पास अपना काम न कराते खुद ही अपना काम करते । यह स्वाश्रय का गुण उनमें अद्भुत ढंग से विकसित हुआ था ।
खुद के पांच-पांच शिष्य-प्रशिष्य होने पर भी सेवा की अपेक्षा से सर्व था पर वे, अपने शिष्य समुदायनेता पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयदेवेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साथ विचरते रहे और स्व-पर का कल्याण करते रहे, उसमें ही आंतरिक संतोष का अनुभव करते ।
पूज्य पंन्यासजी श्री कलापूर्णविजयजीने उपकारी गुरुदेव को सेवा के लिए अनेक विनंती करने पर भी स्वाश्रय गुणसंपन्न इन महापुरुषने अपनी सेवा दूसरों से नहीं करवाने की दृढता को छोड़ी नहीं थी ।
ऐसे निःस्पृही, स्वाश्रयी और संयमी महात्माने तबियत के कारण पीछले कुछ वर्षोंसे भचाउमें स्थिरता की थी । वि.सं. २०२८ के प्रारंभमें ही ज्योतिषविद्याके बल पर अपनी आयु अल्प जानकर
आत्मकल्याणकामी इन महात्माने ज्ञान-पंचमी के दिन से ही १६ दिन के चोविहार उपवास के पच्चक्खाण किये । अपूर्व समताभाव के साथ आत्मध्यानमें लीनतापूर्वक १२वे उपवास के दिन (वि.सं. २०२८, मृगशीर्ष कृ. २) भचाउमें उनका कालधर्म हुआ । (कहे कलापूर्णसूरि - ४0 00000wwwwwwwwwww ३६९)