Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 395
________________ शिष्यों के साथ गांधीधाम चातुर्मास के लिए भेजे और आशीर्वाद देते कहा : 'सुंदर आराधना करें और करायें और चातुर्मास पूर्ण होते ही मैं तुम्हें तुरंत ही बुला लूंगा । चिंता न करें ।' I गुरुदेव की आशिष लेकर मुनिश्री गांधीधाम गये । डेढ़ महिना पसार हुआ वहीं समाचार आये । भाद्रपद कृ. ४ को पूज्य आचार्यश्री का कालधर्म हुआ हैं । यह सुनते ही तीनों मुनिओं के दिल स्तब्ध बन गये और वात्सल्य सागर गुरुदेव का वात्सल्य, योग-क्षेम करने की जागृति इत्यादि गुणों को याद करते गुरु-विरह से फूट-फूटकर रोने लगे । 'जल्दी बुला लूंगा' का आश्वासन देनेवाले सूरिदेव स्वयं ही जल्दी चले गये... । रोते बाल शिष्यों को छोडकर... इस प्रकार कुछ समय शोकाकुल चित्तसे पसार कर के अंतमें सोचा : 'सूरिदेव का पार्थिव देह भले हाजिर नहीं हैं, लेकिन गुण-देह अमर हैं । उनका जीवनपथ हमारे समक्ष मौजुद हैं । इस पथ पर प्रयाण करना उनके गुणों को स्व-जीवनमें उतारना यही सच्ची गुरु-भक्ति हैं ।' ऐसा तीनों मुनि मनको समझाकर संयम आराधनामें तत्पर बने । अंत समयमें स्वयं उपस्थित रह न सके, इस बात का दुःख जरुर था, किंतु गुरु आज्ञा का पालन किया उसका अत्यंत संतोष भी था । गुरु आज्ञा की अवहेलना कर उनके साथ रहने की हठ पकड़ी होती तो क्या होता ? शायद गुरुनिश्रा मिलती, लेकिन गुरुके अंतर के आशीर्वाद नहीं मिलते । सचमुच पूज्यश्रीने आचार्यश्री के अंतर के प्रबल आशीर्वाद प्राप्त कर लिये थे । उस समय गुरुदेवको भी शायद पता नहीं था होगा कि मेरे आशीर्वाद की ताकत से मुनिश्री कलापूर्णविजयजी भाविमें आचार्य बनकर समुदाय नायक बनेंगे । भावि के भेद सचमुच रहस्यमय होते हैं । सामान्य दिखता आदमी कब असामान्य बन जाय, वह कौन जान सकता हैं ? नीतिशास्त्रमें कहा हैं : 'स्त्रीणां चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ?' (कहे कलापूर्णसूरि ४ कळ ३६५

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