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अभी जो भगवान की पहचान देनेवाले ग्रंथ हैं, वे हमारे लिए अद्भुत हैं । इन ग्रंथों को पढें तो भी हृदय नाच उठता हैं, कर्ता जिस भाव से शब्द छोड़ते हैं वे ही भाव हमारे हृदय को छूते हैं, यह नियम हैं । इसलिए ही जिन्होंने हृदयमें भगवत्ता का अनुभव किया हैं, उनके शब्द हमारे हृदय को छूते ही हैं । पू. हरिभद्रसूरिजी के शब्द इसलिए ही हमारे हृदय को झंकृत करते हैं । क्योंकि वे अनुभूति की गहराईमें से निकले हैं ।
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* प्रवृत्ति, पालन और वशीकरण किसी भी प्रतिज्ञामें ये तीन चीजें चाहिए । यह बात 'धम्मसारहीणं' के पाठमें आयेगी । इसलिए ही कोई भी प्रतिज्ञा लेने से पहले हम तीन के बारे में अवश्य विचारें । ब्रह्मचर्य व्रत तो लेता हूं, पर मैं पाल सकूंगा ? वैसा मेरा सत्त्व हैं ? ऐसे विचारें । यह विधि हैं ।
सूत्रविधि से आत्मभाव जानने मिलता हैं । निमित्त इत्यादि की भी यहाँ अपेक्षा रखने के लिए पू. हरिभद्रसूरिजी कहते हैं । मेरी आत्मामें राग, द्वेष, मोह इन तीनमें से कौन सा दोष ज्यादा हैं ? किसी समय चित्त एकदम संक्षुब्ध बन जाये तो भी गभराना मत । इसका प्रतिकार विचारें । उदा. भय दूर करना हो तो शरण स्वीकारें ।
'अभयकरे सरणं पवज्जहा'
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अजितशांति अभय देनेवाले भगवान की शरण स्वीकारते ही भय भाग जाता हैं ।
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भयमें शरण, रोगमें क्रिया ( इलाज ) और विषमें मंत्र यह उपाय हैं ।
'सरणं भए उवाओ, रोगे किरिया विसंमि मंतो'
उसी तरह राग-द्वेष आदिमें भी प्रतिपक्षी भावना भानी वह इलाज हैं । हार्ट इत्यादि के दर्दी जेबमें ही गोली रखकर फिरते हैं । जरुर पड़ने पर तुरंत ही गोली ले लेते हैं । हमें भी यह चतुःशरण, नवकार इत्यादि की गोली साथमें ही रखनी हैं ।
सर्व पापरूपी विष का नाश करनेवाला नवकार हैं । विष द्रव्यप्राण हरता हैं । रागादि भावप्राण हरते हैं । उसे दूर करनेवाला नवकार हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ४
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