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हैं ।
इनके उदार दृष्टिकोण का अनेक बार अनेकों को अनुभव हुआ
पू.पं. श्री वज्रसेनविजयजी :
वि.सं. २००६में मैं जब आठ वर्ष का था तब यहाँ पालिताणा गांवमें दूसरे मुमुक्षुओं के साथ पढने आया था । तब पूज्य श्री भी गृहस्थावस्थामें थे ।
दीक्षा के बाद यद्यपि, खास मिलना नहीं हुआ हैं, परंतु साहित्य द्वारा उनका परिचय होता ही रहा हैं ।
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उन्होंने जिस प्रकार लिखा उसी प्रकार से जीये भी हैं । जीवन की अंतिम क्षण तक समाधि टिकाकर रखी हैं ।
हमारा धर्म ज्यादा करके सुखभावित होता हैं । सुख-शांति हो वहाँ तक धर्म रहता हैं । दुःख आते ही धर्म का बाष्पीभवन हो जाता हैं । निमित्त न मिले वहाँ तक शांत रहते हैं । निमित्त मिलते ही शांति का बाष्पीभवन हो जाता हैं, अंदर का क्रोध ज्वालामुखी बनकर फट निकलता हैं ।
पूज्य श्रीमें ऐसा कुछ नहीं था, अंतमें बिमारीमें भी पूज्यश्रीने अद्भुत समाधि रखी हैं और स्वयं का सर्जन- कार्य अविरत चालु रखा हैं । इसे कहते है : जाना उसी प्रकार जीया !
पू. मुनिश्री धुरंधरविजयजी :
झगडीयाजीमें आठ वर्ष की उम्रमें मेरी दीक्षा हुई । उसके बाद मेरे पू. गुरुदेव (पू.पं. भद्रंकर वि. म. ) के साथ बड़े गुरुदेव पू. आचार्य श्री (विजय प्रेमसूरिजी ) के सांनिध्यमें जाना हुआ । उस समय बालमुनि के रूपमें मैं अकेला ही था ।
उस समय मुझे दो मुनिओं के साथ आत्मीयता भरे संबंध हुए थे : मुनिश्री चंद्रशेखरविजयजी तथा मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी के साथ | हम तीनों खास निकट के साथी बने ।
मुनि चंद्रशेखरविजयजीने लेखक के रूपमें उपनाम 'वज्रपाणि' रखा था । आज भी वे खुमारी का वज्र लेकर फिरते हैं । भद्रगुप्तविजयजीने ‘प्रियदर्शन' उपनाम रखा था । अंत तक सबको उनके दर्शन प्रिय ही लगते ।
मैं तो एकदम छोटा था । मुझे पूज्यश्री दररोज नई-नई सुंदर १८४८ कहे कलापूर्णसूरि - ४
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