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अक्षयराज को धन की खास चिंता कभी करनी नहीं पड़ी । उसे प्रभु पर पक्का भरोसा था । उनकी कृपा से सब कुछ बराबर हो रहा हैं और अवश्य होगा । यह उसका विश्वास विपत्ति के समय भी चलित नहीं होता था ।
अक्षय का नित्यक्रम :
सुबह जल्दी उठकर अक्षयराज सामायिक और प्रतिक्रमण करते । प्रभु-दर्शन और नवकारसी कर पूजा करने जाते । २॥ घण्टे आनंदसे पूजा करके १० बजे दुकान जाते थे । उसके पहले ८.०० बजे पिताजी दुकान खोलकर बैठते ।
अक्षय का साधु-समागम :
एक बार राजनांदगांवमें पूज्य आचार्यश्री वल्लभसूरिजी के शिष्य मुनिश्री रूप वि.म. का चौमासा हुआ। उनके समागम और व्याख्यानश्रवण से अक्षयराज की विराग-भावना को वेग मिला ।
पू. रूप वि.म. के पास 'जैन-प्रवचन' साप्ताहिक आता, जिसमें पूज्यपाद आचार्यश्री विजयरामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचन प्रकट होते थे । उस जैन-प्रवचन का पठन अक्षय को अत्यंत प्रिय लगा था । उसका प्रतिदिन पठन करने से अक्षयराज का संसार का अभिगम संपूर्ण बदल गया । उसे संसार जलता घर, डरावना सागर और भयंकर जंगल सा लगने लगा । संसारमें नित्य भभकती विषयकषायों की ज्वालाएं उसे साक्षात् दिखने लगी । संसार बुरा लगा । छोड़ने जैसा लगा, मोक्ष प्राप्त करने जैसा लगा और उसके लिए मुनि बने बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं हैं-ऐसा लगने लगा । बचपनमें साधु बनने की भावनाएं अब जागृत होने लगी। वैराग्य दृढ बनने लगा ।
उसके बाद खरतर-गच्छीय मुनिवरश्री सुखसागरजी महाराज के चातुर्मास दौरान उनका परिचय हुआ । उन्होंने विरागी अक्षयराज को श्रीमद् देवचंद्रजी का साहित्य पढने और कण्ठस्थ करने की सलाह दी । देवचंद्रजी का साहित्य (चोवीसी इत्यादि) हाथमें आते ही अक्षयराज का भाग्य खुल गया। अध्यात्मलिप्सु अक्षयराज को लगा कि मैं जिसकी तलाश कर रहा हूं, वह मार्ग मुझे इसमें से ही मिलेगा और अध्यात्म-प्राप्ति की अदम्य तमन्ना के साथ पू. देवचंद्रजी (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 600000000000000000 ३४९)