Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 382
________________ खाली हाथों यहाँ से नहीं जाना हैं । कुछ लेकर ही जाना हैं। मृत्यु के समय हृदयमें संतोष हो, आत्मा को तृप्ति हो, ऐसा कुछ करके ही जाना हैं । ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता अक्षयराज : इस तरह अक्षयराज के हृदयमें विचार का स्फुलिंग प्रज्वलित हुआ । उसने विचार को मात्र विचार के रूपमें न रखकर आचारमें ला दिया । उसी वर्ष (वि.सं. २००७) पूज्यश्री रूप वि.म.सा. के पास आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया । और संसारसे मन मोड़ लिया । इतना ही नहीं, लेकिन साधना के मार्ग पर आगे बढने कमर कसी । शरीर को शिक्षा देने और ध्यानमें निर्मलता लाने पू. श्री रूप वि.म. के (वि.सं. २००७) चातुर्मास दौरान १६ उपवास की तपश्चर्या की । अक्षयराज वैराग्य के मार्ग पर : तपश्चर्या के साथ भक्तिमें लीनता, कायोत्सर्ग, जाप, आगमसारादि ग्रंथों का वांचन इत्यादि मिलने से अक्षयराज का वैराग्य दीपक दावानल बनकर भड़क उठा । उसका आतम-हंस संसार के पिंजरेमें से मुक्ति प्राप्त करने तड़प उठा और अपनी आत्मा को समझाने लगे : 'ओ आतम हंस ! कहा तक इस संसार के पिंजरेमें बंद रहना हैं ? संसार का पिंजरा तेरा निवासस्थान नहीं हैं, तेरे निवास का स्थान तो मुक्तिरूपी मानसरोवर हैं । बंद रहना यह तेरा स्वभाव नहीं, मुक्त गगनमें उडुयन करना तेरा स्वभाव हैं । जिंदगी क्या बंधनोंमें ही पूरी कर देनी हैं ? जिस प्रकार अनंत जिंदगीयां बेकार गई उसी तरह इस जिंदगी को भी निरर्थक जाने देनी हैं ? ओ चेतन हंस ! समझ, समझ । हिंमत कर और बेड़ीओं को तोड़ दे । याद रख कि घरमें बैठे-बैठे आत्मा का दर्शन होता नहीं हैं। इसके लिए तो दीक्षा ही लेनी पड़ती हैं। तीर्थंकर भी जहाँ तक दीक्षा नहीं स्वीकारते वहाँ तक मनःपर्यव ज्ञान या केवलज्ञान नहीं होते । इसलिए ओ जीव ! जलदी कर । समय झड़प से पसार हो रहा हैं । अविरतिमें रहकर लोहे के गोले जैसा तू प्रतिक्षण अन्य जीवों को ताप और त्रास दे रहा हैं, तेरे कारण कितने जीव त्रास का अनुभव कर रहे हैं ? उस (३५२woooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ४)

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