Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 381
________________ इस प्रकार मात्र एक ही वर्ष के अंतरमें घरमें से दोनों शिरच्छत्ररूप बुझुर्गों की विदाई होने से घर के ६ सभ्योंमें से ४ सभ्य हो गये । इस प्रसंग से अक्षयराज के हृदयमें जोरदार झटका लगा : अनित्य-भावना से भरे हुए हृदय से वह विचारने लगा : ओह ! संसार कितना अनित्य हैं । जिन्होंने मुझे जन्म दिया, जिनकी गोदमें मैंने अमृत पीया वे मेरे शिरच्छत्र देखते-देखते ही चले गये । कैसा क्षण भंगुर जीवन ! आदमी कुछ करे उसके पहले ही यमराज का बुलावा आ जाता हैं । मनुष्य सारी जिंदगी सुख की सामग्री अनेक पाप कर-करके एकत्रित करता हैं और आराम से उपभोग के लिए शांति से बैठने का विचारे उसके पहले तो बूढा हो जाता हैं । - और मौत का राक्षस एक साथ सब साफ कर डालता हैं...। किसीने १० लाख रूपये इकट्ठे किये या किसीने १० हजार इकट्ठे किये... परंतु मृत्यु के बाद क्या ? यहाँ की एक भी वस्तु परभवमें साथ चल नहीं सकती । जिन्हें मैंने युवान होकर कूदाकूद करते देखे थे, उन जवांमर्दो को हाथमें लकड़ी लेकर चलते बूढे हो गये देख रहा हूं। जो बूढे थे उन्हें श्मसानमें सोते देख रहा हूं। जीवन तो नदी के प्रवाह की तरह तेजी से दौड़ रहा हैं । एक क्षण भी वह किसी के लिए रुकता नहीं । जीवन के वर्ष मानो हिरण की पूंछ पर बैठकर दौड़ रहे हैं । अभी तो मैं छोटा था । माता-पिता की गोद खौदंता था । आज युवान हूं। कल बूढा हो जाऊंगा । क्या यों ही जिंदगी पूरी हो जाएगी ? धर्मरहित जिंदगीका क्या अर्थ हैं ? ऐसे तो कौए और कुत्ते भी कहाँ नहीं जीते ? वे भी क्या पेट नहीं भरते ? क्या खाना-पीना और मजा करना - यही जिंदगी हैं ? यदि ऐसा हो तो पशुओं को मनुष्य से श्रेष्ठ मानना पड़ेगा । मनुष्य की महिमा किस कारण से हैं ? सचमुच धर्म से ही मनुष्य मनुष्य बनता हैं, बड़भागी बनता हैं । जिसमें धर्म नहीं वह मनुष्य नहीं, परंतु पूंछ और सींग रहित पशु हैं पशु ! पशुता भरी जिंदगी अनेकबार जीये । अब इस जन्ममें तो ऐसा नहीं ही करना हैं। इस जन्ममें तो अवश्य दिव्यता प्रकट करनी ही हैं । यों ही (कहे कलापूर्णसूरि - ४Wwwwwwwwwwwwsanamom ३५१)

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