Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 385
________________ किया । घरमें भी बालकों को धार्मिक सूत्र सीखाने लगे। सामायिकमें साथमें बैठाकर उन्हें धर्म की बातें, महापुरुषों की जीवनघटनाएं इत्यादि सरल भाषामें समझाते रहे । सद्गुरु की शोधमें : __ अब लाख रूपयों का सवाल यह था कि दीक्षा तो लेनी हैं, लेकिन किनके पास ? गुरु किन्हें बनाना ? जिनके चरणोंमें जीवन का संपूर्ण समर्पण कर देना हैं, ऐसे संसार-तारक गुरुदेव की शोध करना यह महत्त्व का और कठिन कार्य हैं । वाहन चलानेवाला कप्तान सावधान चाहिए, प्लेन चलानेवाला पायलोट गाफिल नहीं चाहिए । मोटर चलानेवाला ड्राइवर असावधान नहीं चाहिए । उनकी एक मिनिट की असावधानता और अनेकों का जीवन खतरेमें... ड्राइवर, पायलोट या कप्तान से भी गुरु की भूमिका बहुत ऊंची हैं । वे (ड्राइवर आदि) तो मात्र इस भौतिक देहकी ही नुकसानी इस जन्म तक की ही कर सकते हैं, जब असावधान गुरु तो भवोभव बिगाड़ सकते हैं । इसलिए गुरु तो उत्तमोत्तम ही चाहिए । चाहे उनके चरणोंमें जीवन यापन कैसे कर सकते हैं ? सद्गुरु की शोध के लिए शास्त्रमें १२ साल और ७०० योजन तक फिरने का कहा हैं। अक्षयराज गुरु का महत्त्व बराबर समझते थे । अतः उन्होंने अपने श्वसुर मिश्रीमलजी को इस बारेमें पूछा । उन्होंने कच्छ-वागड देशोद्धारक सुविशुद्ध संयममूर्ति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयकनकसूरीश्वरजी म.सा. का नाम दिया । उनके पास यह नाम कैसे आया ? बात ऐसी थी कि उनके नजदीक के संबंधी श्री लक्ष्मीचंदभाई कोचर, जो फलोदी के ही वतनी थे, उन्होंने पूज्य कनकसूरीश्वरजी म. के पास ही दीक्षा ली थी और उनके शिष्य मुनिश्री कंचनविजयजी म. के रूपमें सुंदर साधना कर रहे थे । पूज्यश्री कंचनविजयजीने गृहस्थावस्थामें सद्गुरु की शोध के लिए भारी प्रयत्न करके अंतमें पूज्यश्री कनकसूरीश्वरजी म.सा. को गुरु के रूपमें नक्की किये थे । (कहे कलापूर्णसूरि - ४00mmmmssssswomano ३५५)

Loading...

Page Navigation
1 ... 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420