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बुझुर्ग के रूपमें ध्यानप्रेमी पू. रत्नाकरविजयजी म. - इन दो महात्माओं को फलोदी वै.शु. १० के दीक्षा प्रसंग पर पहुंचने की आज्ञा दी । विनीत शिष्योंने नत-मस्तक होकर तुरंत ही बात स्वीकार ली । पूज्य आचार्य भगवंत के आशीर्वाद के साथ उन्होंने फलोदी की तरफ प्रयाण शुरु किया । और क्रमशः पहुंचे ।
उस समय फलोदी का वैभव कुछ और ही था । सभी फिरके के मिलकर प्रायः एक हजार जैनों के घर थे ।
प्रव्रज्या के पुनित पथ पर...
फलोदी के पुनित आंगनमें एक ही कुटुंबमें से पांच-पांच आत्माएं दीक्षित बन रही थी । अतः पूरा गांव हर्षके हिलोरे पर चढा था । गली-गलीमें एक ही बात सुनाई दे रही थी : दीक्षा... दीक्षा... और दीक्षा...! गुलाब की कली जैसे कोमल छोटे दो बालकों को दीक्षा के मार्ग पर जाते देखकर सबका हृदय गद्गदित हो रहा था । सब बोल रहे थे के - वाह ! प्रभुशासन की कैसी बलिहारी हैं कि छोटे बालक भी त्याग के मार्ग पर हंसते मुख प्रयाण कर रहे हैं । हम जैसे पामरों का अभी संसार छोड़ने का मन नहीं हो रहा हैं । धन्य माता ! धन्य पिता ! धन्य कुल ! धन्य कुटुंब ! धन्य दीक्षार्थी...!
एक पुण्यशाली आत्मा के कारण वातावरण कितना बदल जाता हैं ? अक्षयराज के मनमें उठे हुए प्रव्रज्या के पवित्र तरंग उनके श्वसुर, पत्नी, पुत्र आदि सर्व पर बिजली के वेग से फैल गये । सब दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गये । मानो कलिकाल के जंबूस्वामी !!!
दीक्षा-दिन :
'दीक्षार्थी' अमर रहो... दीक्षार्थी का जय जयकार ! मानवजीवन का एक ही सार, बिना संयम नहीं उद्धार ।' इत्यादि नाराओं से आज फलोदी की गलीयां गुंज रही थी । छोटे, बड़े, स्त्री-पुरुष, बालक, बालिकाएं सभी आनंद के कुंडमें स्नान कर रहे थे ।
आज वै.शु. १० का दिन था । पांचों मुमुक्षु राजवंशी वेशमें सज्ज होकर वरसीदान उछालते-उछालते दीक्षा-मंडप की तरफ प्रयाण (३५८ Womoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)