Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 377
________________ व्यवसाय के लिये माता की टकोर : एक दिन दोपहर को भोजन के समय माताने अक्षय को कहा : 'बेटे ! इस तरह तुझे कहाँ तक रहना हैं ? तुझे भावि के लिए कोई विचार नहीं आता ? समझदार को इशारा काफी हैं । माता की इस मार्मिक टकोर से अक्षयने व्यवसायार्थ परदेश जाने का निर्णय किया । पिता - चाचा इत्यादि की सलाह से मध्यप्रदेशमें रहे हुए 'राजनांद' गांवमें पहुंच गया । राजनांदगांवमें अक्षयराज : इस छोटी और मेहंगी मानव-जिंदगीमें अक्षय को तो धर्म की ही कमाई करनी थी, किंतु व्यवहार के लिए धन भी चाहिए । इसलिए ही धनार्जनमें प्रवृत्त होने पर भी धर्म को भूला नहीं था । राजनांदगांवमें संपतलालभाई (जो फलोदी के ही थे ।) सेठ की पेढीमें काम करने के लिए अक्षय रह गया । अक्षय की धर्मनिष्ठा से सेठ अत्यंत खुश हुए । धर्मक्रियामें कोई विघ्न न आये उस तरह उन्होंने सुविधा कर दी । सेठ स्वयं धर्मी थे । इसलिए धर्मी अक्षय को देखकर प्रसन्न हुए... इतना ही नहीं और भी अक्षय धर्म-मार्ग पर आगे बढ़ता रहे वैसी प्रेरणा भी देते । रोज नवकारसी और तिविहार करते अक्षय को उन्होंने चौविहार के लिए प्रेरणा दी और रात्रिभोजनमें संपूर्णतया रोका। अक्षय की धर्मदृढता का एक प्रसंग : अक्षय की धर्म-दृढता बताता एक प्रसंग बहुत जानने जैसा हैं । एक दिन दुकानमें बहुत काम था । कामकाजमें ही रात्रि के १२ बज गये । अक्षय को रोज प्रतिक्रमण करने का नियम । किंतु १२ बजे के बाद दैवसिक प्रतिक्रमण तो हो नहीं सकता । अब क्या करूं? क्या सो जाऊं ? सामान्य आदमी तो ऐसा ही विचार करे कि चलो, आज वैसे भी प्रतिक्रमण हो नहीं सकेगा । सो जायें । गुरु के पास जाकर बादमें प्रायश्चित्त ले लेंगे। लेकिन अक्षयने ऐसा ढीला विचार नहीं करते सोचा : भले प्रतिक्रमण न हो सके, परंतु सामायिक तो हो सकेगी न ? सामायिक करके सोउं तो संतोष होगा कि आज का दिन बिलकुल धर्म की कमाई रहित नहीं गया । (कहे कलापूर्णसूरि - ४000000000wwwwwwwwwww ३४७)

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