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हरिभद्रसूरिजीने १४४४ ग्रंथों की रचना की। आगमों के दुर्बोध पदार्थो को सरल बनाने के लिए ही शीलांकाचार्य तथा अभयदेवसूरिजीने उस पर टीकाएं रची । आगमों के उपनिषद् को प्राप्त करने के लिए ही कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्रसूरिजीने साढ़े तीन करोड़ श्लोकों की रचना की, आगमों के पदार्थों को नव्यन्याय की शैलीमें उतारने के लिए ही उपा. यशोविजयजीने अकेलेने अनेक ग्रंथों की रचना की । भिन्न-भिन्न महात्माओंने भिन्न-भिन्न चरित्र ग्रंथ, प्रकरण ग्रंथ या गुजराती भी कोई साहित्य रचा वह भी आगम की ओर जाने के लिए ।
आगमों को सुलभ बनाने के लिए ही पू. सागरजी महाराजने उसे संशोधित - संपादित कर मुद्रित बनाये ।
आगम हमारी अमूल्य संपत्ति हैं । इसका एकेक अक्षर मंत्राक्षर से भी अधिक हैं । इसका एकेक अक्षर देवाधिष्ठित हैं । ऐसे पवित्र आगम विधिपूर्वक ग्रहण किये जाये तो ही फलदायी बनते हैं । साधु भी उसके योगोद्वहन करने के बाद ही अधिकारी बनते हैं । श्रावकों को नवकार इत्यादि के उपधान होते हैं उस प्रकार साधुओं को भी योगोद्वहन होते हैं । आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, महानिशीथ आदि के योगोद्वहन होने के बाद उस ग्रंथ का अधिकार मिलता हैं ।
उदा. महानिशीथ के योगोद्वहन करनेवाला साधु ही दीक्षाप्रतिष्ठा-उपधान आदि का अधिकारी बन सकता हैं ।
भगवती सूत्र के योगोद्वहन करनेवाला ही बड़ी दीक्षा वगैरह का अधिकारी बन सकता हैं ।
गणि-पदवी का अर्थ दूसरा कुछ नहीं, भगवती सूत्र के योगोद्वहन की अनुज्ञा । आपके उपधान की माल अर्थात् नवकार आदि सूत्रों की अनुज्ञा ।
गणि-पदवीमें मात्र भगवती सूत्र की अनुज्ञा दी जाती हैं । पंन्यास पदवीमें सर्व आगमों के अनुयोग की अनुज्ञा दी जाती हैं। दोनों के बीच इतना महत्त्व का अंतर हैं ।
हमारे यहाँ प्रथम पंन्यासजी के रूपमें पू.आ.श्री विजयसिंहसेनसूरिजी के शिष्य पू. सत्यविजयजी का नाम सुना जाता (३३० 0mmoonomoooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)