________________
हैं । वर्तमान कालमें पंन्यासजी महाराज के रूपमें समग्र जैन संघमें प्रसिद्ध पूज्यश्री भद्रंकरविजयजी गणि थे ।
२२ वर्ष पूर्व फलोदी चातुर्मास दरम्यान हम तीन (मैं, पूर्णचंद्र वि. तथा मुनिचंद्र वि.) हीरसौभाग्य काव्य पढ रहे थे, उस समय उसमें 'प्रज्ञांश' शब्द का प्रयोग देखने मिला। हीरसौभाग्य के रचयिता श्री देवविमल गणि लिखते हैं : हीरविजयसूरिजीने कुछ मुनिओं को 'प्रज्ञांश' बनाये । लगता है कि 'पंन्यास' शब्द का संस्कृतिकरण 'प्रज्ञांश' किया होगा अथवा प्रज्ञांश शब्दमें से पंन्यास शब्द बना होगा । (जानकार कहते हैं कि पंडित पद का न्यास वह पंन्यास पद, पंडित का पहला अक्षर पं + न्यास = पंन्यास)
परमगुरु की प्रज्ञा के अंश का जिसमें अवतरण हुआ हो वह 'प्रज्ञांश' कहा जाता हैं ।
भूतकालीन विषयक स्मृति । वर्तमानकालीन विषयक बुद्धि ।
भविष्यकालीन विषयक मति । - कुछमें स्मृति होती हैं, लेकिन बुद्धि नहीं होती । बुद्धि होती हैं तो स्मृति-मति नहीं होती । मति होती हैं तो बुद्धि नहीं होती। एक ही व्यक्तिमें तीनों शक्तियाँ हो ऐसी घटना विरल होती हैं । तीनों एक स्थानमें हो उसे प्रज्ञा कही जाती हैं । इस प्रज्ञा का अंश जिसमें अवतरित हुआ हो वह 'प्रज्ञांश' कहा जाता हैं ।
आज पूज्यश्री जब पंन्यास-पद प्रदान कर रहे हैं, यद्यपि गत वर्ष ही इस पदवी की बात थी, विज्ञापन भी हो गया था, परंतु पदवी न होने से बहुत लोग विचारमें पड़ गये होंगे, मगर. नियति हो उसी प्रकार से काम होता हैं । और जो होता हैं अच्छे के लिए ही । नहीं तो ऐसा सिद्धक्षेत्र कहाँ मिलनेवाला था ? अनंत सिद्धों का क्षेत्र यहीं हैं, लेकिन साथ-साथ हमारे समुदाय के नायक पू. जीतविजयजी तथा पू. कनकसूरिजीने गृहस्थावस्थामें यहीं चतुर्थव्रत ग्रहण किया था । पू. कनकसूरिजी की पंन्यास-पदवी यहीं पर हुई थी । पू.उपा.श्री प्रीतिविजयजी की दीक्षा यहीं पर हुई थी ।
' ऐसे परमपवित्र स्थानमें ऐसे महान तारक गुरुदेव की निश्रामें... जिन गुरुदेव के वरद हस्त से पदवी आदि प्राप्त करने के लिए बड़े(कहे कलापूर्णसूरि - ४ 80 oooooooooooooooon ३३१)