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__ हम दादा की यात्रा करने के लिए उपर जाते हैं । उपर २७००० जिनबिंब हैं, परंतु सभी मूर्तिओं के दर्शन-वंदन कर नहीं सकते हैं । मात्र आदिनाथ दादा आदि मुख्य-मुख्य के कर लेते हैं। फिर भी उनके प्रति कोई हमारी अवज्ञा नहीं हैं । हमारे पास समय नहीं हैं । भाव से तो सबके दर्शनादि करते ही हैं ।
इस चैत्यस्तव से सब प्रतिमाओं के वंदनादि का लाभ मिलता
* स्थान, वर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालंबन इन पांचों 'योगो' में पतंजलि के योग के आठों अंग आ गये ।
स्थानमें - यम, नियम, आसन ।
वर्णमें - प्राणायाम (पद्धतिसर उच्चारण करते श्वास लयबद्ध बनता हैं ।)
अर्थमें - प्रत्याहार, धारणा । आलंबनमें - ध्यान । अनालंबनमें - समाधि ।
स्थान आदिपूर्वक चैत्यवंदन किया जाये तो सचमुच ही समाधि तक ले जानेवाला महान अनुष्ठान बन सकता हैं ।
हमने तो अभी चैत्यवंदन, पूजा इत्यादि ऐसे बना दिये हैं कि दूसरे लोगों को 'यह तो मात्र शोरगुल हैं । यहां योग, ध्यान जैसा कुछ भी नहीं हैं ।' ऐसा कहने का मन हो जाये ।
जो स्थान आदि की दरकार किये बिना ही चैत्यवंदन आदि करते रहते हैं, वे स्वयं शासन-बाह्य हैं, ऐसा श्री हरिभद्रसूरिजी कहते
ऐसा इस वाचनामें सुनने को मिलेगा । यह सुनोगे तो ही चैत्यवंदनमें भाव भर सकोगे । इसलिए ही कहता हूं : यात्रा शायद कम हो तो चला लेना, लेकिन वाचना सुनना चूकना मत । * ध्यान को लानेवाली अनुप्रेक्षा हैं ।
अनुप्रेक्षा को लानेवाली धारणा हैं । धारणा को लानेवाली धृति हैं ।
धृति को लानेवाली मेधा हैं । __. मेधा को लानेवाली श्रद्धा हैं ।
कहे
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