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साधना ज्यों ज्यों परिपक्व बनती जाती हैं, त्यों त्यों इच्छाओं का नाश होता जाता हैं, कम होती जाती हैं । पहले अनेक प्रकार की इच्छाएं साधक को होती थी, परंतु अब वह इच्छाएं कर-करके थक गया हैं । इच्छाएं ही उसे दुःखरूप प्रतीत होती हैं ।
'इच्छाएं स्वयं दुःख हैं ।' यह जितना जल्दी समझमें आये उतना अच्छा ! हम इच्छाओं को पूर्ण करने का परिश्रम करते हैं, पर ज्ञानी कहते हैं : इच्छाएं कभी किसी की पूर्ण हुई हैं ? इच्छा हु आगास-समा अणंतया । इसमें से छूटने का एक ही मार्ग हैं : इच्छाओं को हटा देनी । यद्यपि इच्छाओं को हटानी आसान नहीं हैं । बहुत कठिन बात हैं। क्योंकि इच्छाओंमें ही हमने सुख मान लिया हैं । हम इच्छाओं को पूर्ण करने का परिश्रम करते हैं, लेकिन ज्ञानी कहते हैं : इच्छाओं को नष्ट करो । उसमें आपको कुछ गंवाना नहीं हैं । गंवाना है सिर्फ आपका दुःख !
सुखी होने का इसके बिना कोई अन्य मार्ग नहीं हैं । . * प्रश्न : श्रद्धा आदि न होने पर भी ऐसा बोलने से मृषावाद नहीं लगता ?
उत्तर : उसका कौन निषेध करता हैं ? परंतु श्रद्धाहीन बुद्धिमान ऐसा कभी करता ही नहीं । वह विचारकर ही करता हैं । शायद आप कहेंगे : श्रद्धाहीन बुद्धिमान 'सद्धाए मेहाए ।' इत्यादि नहीं बोलता क्या ? परंतु, आपकी विचारणा मात्र एकांगी हैं । जिसमें आपको श्रद्धा की कमी लगती हैं उसमें सचमुच पूर्ण श्रद्धा की कमी नहीं होती । जिसमें पूर्ण श्रद्धा की कमी हो वह तो ऐसा कभी करता ही नहीं । श्रध्धा भी मंद, तीव्र, तीव्रतम वगैरह अनेक रूपसे होती हैं । मंद श्रद्धा होने के कारण हमें भले न दिखे, लेकिन वह होती ही हैं । वह श्रद्धा उसके आदर इत्यादि से जान सकते हैं।
श्रद्धा, मेधा आदि शायद तीव्र न भी हो, परंतु आदर भी आ जाये तो भी हमारा बेड़ा पार हो जाय । आदर ही इच्छायोग हैं । इच्छायोग सामान्य वस्तु नहीं हैं । इच्छायोगवाला साधक अर्थात् बाजारमें प्रतिष्ठित व्यापारी । भले उसके पास पुंजी नहीं हैं, लेकिन बाजारमें आबरु हैं। आबरु के कारण उसे व्यापारी रूपये देंगे ही । क्योंकि उन्हें विश्वास होता हैं : यह हमें रूपये देगा ही।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४00mmonsooooooooooo® ३१९)