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सूत्र हैं । 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि द्वारा जिन-चैत्यों को वंदन करने की तीव्र इच्छा व्यक्त होती हैं । बढती जाती श्रद्धा-मेधा वगैरह से बहुत कर्मों की निर्जरा होती हैं । कर्म-निर्जरा होते मन निर्मल
और निश्चल बनता हैं । ऐसे मनमें अनालंबन योग का अवतरण होता हैं ।
कषाय इत्यादि की अवस्थामें चित्त चंचल बनता हैं, आत्मप्रदेश अत्यंत कंपनशील बनते हैं । विषय-कषायों के आवेश शांत होते हैं, तब चित्त निर्मल और निश्चल बनता हैं । विषय-कषायों का आवेश जिन-चैत्यों के वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान आदि की तीव्र इच्छा से शांत होता हैं ।
जैनशासनमें निर्मलता रहित निश्चलता का कोई मूल्य ही नहीं हैं । विश्व को संहारक अणुबोंब की 'भेंट' देनेवाले वैज्ञानिकोंमें कम निश्चलता नहीं होती । चूहे को पकड़ने के लिए तैयार होती बिल्ली में कम निश्चलता नहीं होती । किस काम की ऐसी निश्चलता ?
निर्मलता केवल भक्तियोग से ही आती हैं ।
दिगंबर और श्वेतांबरमें यहीं अंतर हैं । दिगंबरोंमें प्रथम तत्त्वार्थ पढाया जाता हैं । वहाँ पंडित तैयार होते हैं । जब श्वेतांबरोमें नवकार आवश्यक सूत्र इत्यादि पढाये जाते हैं । इससे यहां श्रद्धालु भावुक तैयार होते हैं । श्रद्धावान् ही धर्म का सच्चा अधिकारी हैं। मेधावान् नहीं, प्रथम श्रद्धावान् चाहिए । इसलिए ही 'सद्धाए मेहाए' लिखा, 'मेहाए सद्धाए' नहीं लिखा ।।
___ मैं तो बहुतबार भावविभोर बन जाता हूं। कैसी सुंदर हमें परंपरा मिली हैं । जहाँ बचपन से ही दर्शन-वंदन-पूजन के संस्कार मिले । इसके कारण ही भक्ति मुख्य बनी ।
भक्ति को जीवनमें प्रधान बनायें, यदि आगे बढना हो । अगर पंडित बनने गये, भक्ति छोड़ दी तो अभिमान आये बिना नहीं रहेगा । अभिमान से कभी विकास नहीं होता । हा, विकास का आभास जरूर होता हैं ।
एक भक्ति आ गई तो सब कुछ आ गया ।
यशोविजयजी भक्ति योग के कैसे प्रवासी होंगे : जिन्होंने भगवान को कह दिया :
(३२२ 0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)