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हरिभद्रसूरिजी इस चैत्यवंदन सूत्र के लिए कहते हैं : यह अनुष्ठान समाधि का नहीं, महासमाधि का बीज हैं । यह बात मात्र लिखने के लिए नहीं लिखते; स्वयं वे जीकर लिखते हैं । इनके जीवनमें गुरु-परंपरा, बुद्धि और अनुभव - तीनों का सुभग समन्वय देखने मिलता हैं । जहा ये तीन होते हैं वहा अपूर्व वचन देखने मिलते ही हैं ।
___ * सद्गुण परायी वस्तु नहीं हैं, हमारी ही हैं । स्वच्छता बाहर की वस्तु नहीं हैं, अंदर की ही हैं । कचरा निकालते ही स्वच्छता हाजिर । दुर्गुण निकालते ही सद्गुण हाजिर ! ये सद्गुण हमारे स्वयं के हैं । बाहर से कहीं से प्राप्त करने नहीं हैं, अंदर रहे हुए हैं, उसे मात्र खोलना ही हैं । दुर्गुणों को हटाते ही आपके सद्गुण प्रकट होंगे ही ।
* आठ योग अंगोंमें अंतिम तीन धारणा, ध्यान और समाधि हैं । आठों अंगों का फल अंतमें समाधिमें प्रकट होता हैं । श्रद्धा आदिमें आठों अंग देखने मिलेंगे । धारणा तो हैं ही । अनुप्रेक्षामें ध्यान आ गया और काउस्सग्गमें समाधि आई ।
इसके पहले के पांचों अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार) भी यहाँ समाविष्ट हैं ही ।
यहाँ यम, नियम इत्यादि रहित मनुष्य आ सकता ही नहीं । जिनमुद्रा से 'आसन' आ गया ।
बहिर्भाव का रेचक, आत्मभाव का पूरक और कुंभक, इसके द्वारा भाव प्राणायाम आ गया ।
बहिर्गामी इन्द्रियों को रोककर अन्तर्गामी बनाई, उसमें प्रत्याहार आ गया ।
क्या बाकी रहा ? एक चैत्यवंदन को आप विधिपूर्वक और हृदयपूर्वक करो तो महासमाधि तक पहुंच सकते हो ।
यह जीवन ऐसी समाधि प्राप्त करने के लिए मिला हैं । इसकी जगह हम उपाधि प्राप्त कर रहे हैं । जहाँ हीरे मिल सकते हैं, वहां हम कंकर एकत्रित कर रहे हैं । .
श्रद्धा, मेधा आदि महासमाधि के बीज हैं, ऐसा यहाँ हरिभद्रसूरिजी कहते हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ४ was a 0 0 0 0 mmswww ३१३)